Sunday, October 4, 2009

और कितना चाहिए

मुंहलगे छात्रों में से किसी ने हड़ताली प्रोफेसर से पूछा: ‘‘ आप लोग किस बात को लेकर हड़ताल पर हो ?’’
‘‘ वेतनमान को लेकर !’’ प्रोफेसर ने उसे सिरपर बिठाते हुए कहा।
‘‘ पचास हज़ार लेकर नहीं पढ़ा रहे हो और वेतन के लिए हड़ताल पर जा रहे हो !’’ मुंहलगे छात्र ने जैसे प्रोफेसर के मुंह पर स्पिट कर दी। प्रोफेसर ने मुंह पोंछते हुए कहा:‘‘ तुम लोगों को फुर्सत कहां है कक्षाओं में आने की ? खाली क्लासरूमों में लड़कियों को लेकर पता नहीं क्या करते हो ! परीक्षाओं में चिट लेकर आते हो। कभी कलासरूम में भी आओ तो हम पढ़ाएं भी... और तुमसे किसने कह दिया कि हम लोगों को पचास हज़ार मिलता है ?’’
‘‘ मुख्यमंत्री तो कह रहा है।’’छात्र ने कहा।
‘‘ मुख्यमुत्री को कुछ पता नहीं...आईएएस कान भर रहे हैं ,वह उल्टी कर रहा है। तुम लोग सरकारी छात्रसंगठन के कार्यकर्ता हो, तुम उसी की जुगाली कर रहे हो।’’ प्रोफेसर आक्रोशित होकर बोले।
छात्र ने हंसकर कहा ‘‘ अच्छा, चलो मुख्यमंत्री और आईएएस झूठ बोल रहे हैं ...आप ही सच सच बता दो , कितना मिलता है ?’’
‘‘ तीस हज़ार मिलता है और कितना मिलता है।’’ प्रोफेसर ने असंतुष्टि से कहा।
‘‘ बहुत ज्यादा मिलता है...और कितना चाहिए ? दस पन्द्रह हज़ार में लोगों के घर चल रहे हैं।’’ लड़के ने हंसी का पत्थर उछालते हुए कहा। प्रोफेसर जानता है कि यह लड़का छात्रनेता है ,छात्र नहीं हैं , वह राजनीति की केडरशिप में हंै। इसलिए प्रोफेसर ने झिड़कते हुए कहा ‘‘ तुम तो कहोगे ही...तुम्हें ऐसा कहने के लिए कहा जा रहा है। तुम लोग तो हाथ , पांव और मुंह हो मुख्यमंत्री के....और भी क्या हो ,मैं बोलना नहीं चाहता...’’
‘‘किस मुंह से बोलोगे...सब्बरवाल का हाल देख चुके हो...’’ लड़का ज़ोरज़ोर से हंसने लगा। छात्रों की राजनीति करनेवाला प्रोफेसर मुस्कुरा दिया।

‘‘और कितना चाहिए’’ यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है ? किसका घर कितने में चल रहा है ? यह भी एक विचारणीय मुद्दा है। किस व्यक्ति को घर की जरूरतों के हिसाब से कितना चाहिए और उसे मिल कितना रहा है, इस पर भी विचार होना चाहिए। विचार तो इस पर भी होना चाहिए कि जिनका वेतनमान कम है ,उनको उससे तिगुना चैगुना कहां से मिल रहा है ? किस किस विभाग के अधिकारी और कर्मचारियों का बैंक बैलेंस कितना है और उनकी बढ़ती हुई संपत्ति के सा्रेत , वेतन के अलावे और कहां कहां से हैं ? मगर विचार की जरूरत किसे है ? श्रीकांत वर्मा की एक कविता है ‘‘मगध में विचार की कमी हैं।’’ यहां मगध का मतलब हमारी समूची भ्रष्ट व्यवस्था है।
बात कविता की चले और कबीर की याद न आए ,ऐसा कम ही होता है। कितना चाहिए का उत्तर कबीर के पास मिल सकता है। कबीर ने कहा है-
‘‘ सांई इतना दीजिए, जामै कुटुम्ब समाए।
मैं भी भूखा न रहूं ,साधू न भूखा जाए।।’’
ज़रा सोचिए ,कबीर का घर कितने में चलता होगा ? कबीर जिस कुटुम्ब की बात करते हैं उसमें कितने लोग होंगे ? आने-जाने-खानेेवाले और कुटुम्ब का बजट बिगाड़नेवाले इन साधुओं की मासिक संख्या कितनी होगी ? फक्कड़ कबीर का वेतनमान साईं नामक नियोक्ता या अन्नदाता ने कितना रखा होगा ? कबीर को ‘कितना चाहिए’,कबीर ने अपना यह बजट नहीं बताया। अनपढ़ समझे गए या प्रचारित किए गए मस्तमौला और अक्खड़ कबीर ने कभी बजट बनाया होगा ,इसकी कल्पना मुश्किल है। मगर यह जो प्रस्ताव कबीर ने रख दिया है, नियोक्ता के सामने , वह विचारोत्तेजक है। हल्की फुल्की और उड़ा देनेवाली बात रहस्यमय कबीर ने शायद ही कभी की हो। फलस्वरूप कबीर के साईं को कबीर का बजट बनाना पड़ा। अगर साई ईमानदार हो और हितग्राहिओं की जरूरतों को समझता हुआ खुद बिना पक्षपात के उनका बजट बनाना शुरू कर दे तो यह नौबत नहीं आती ; शायद। जनश्रुतियों में यह बात नहीं आई हैं कि कबीर को कभी हड़ताल पर बैठना पड़ा हो या वेतनमान को लेकर साई से कभी उसकी हुज्जत हुई हो। पढ़ने और सुनने में तो यही आता है कि साई ने कबीर को इतना दिया कि कबीर ही लज्जित हो गए। एक गवाही (साक्षी) में कबीर कहते हैं -
देनेवाला और है , देता है दिन रैन ।
लोग भरम मौं पै करैं , तातै नीचे नैन।।
मातहतों की आंख नीची रहे इसके लिए दिन-रात देते रहना चाहिए ,कबीर अपने देनेवाले के उदाहरण से यही कहना चाहते हैं।

यहां आकर कबीर के इस ‘‘देनेवाला और’’ पर हरिशंकर परसाई को पढ़नेवाले विद्वानों की तरफ़ मेरा ध्यान खिंच गया है। व्याख्या की बात हो तो परसाई की याद आना स्वाभाविक है। दरअसल प्रजातंत्र में यह ‘देनेवाला और ’ ही है जो केन्द्र में है और सारी सत्ताओं को संभाले हुए है। प्रत्यक्ष संाईंयों के पीछे खड़ा हुआ यह ‘समानान्तर सांईं’ है। कबीर के मामले में वह कोई और था जो राम के समान्तर था। वह देता था और कबीर का कुटुम्ब भी समाता था और साधू भी छक कर जाता था।
प्रजातंत्र में यह संाई चंदा भी देता है ,उपहार भी देता है ,स्पांसरिंग भी करता है ,लिफाफे या सूटकेस , जहां जैसा जरूरी हो ,देता रहता है। इन सांइयों के भरोसे ही वेतनमान की चिन्ता सबार्डिनेट और अधिकारियों को नहीं रहती। टैन परसेंट से लेकर चालीस परसेंट तक वह दे देता है। विभागीय काम और टारगेट के आधार पर यह परसेंट तय होता है। जिला ,संभाग, प्रदेश स्तर तक नेटवर्क फैला हुआ है। वेतनमान इस नेटवर्कीय-आवक की तुलना में दो कौड़ी का है। तुलना तो दिखावे के लिए तब होती है ,जब दस साल में एक बार नम्बर एक में दिए जानेवाले वेतनमान की घोषणाएं की जाती है। जनता के लिए शासन करनेवाले नुमाइंदों के खर्चों की कटौतियां नहीं होती । केवल वेतन पर निर्भर रहने वाले लोगों के भत्तों पर रोक लगाकर देनेवाले के महत्व को स्थापित किया जाता है।
यही चल रहा है। इसी के चलते पर्दे के पीछे के स्रोतों से हिस्सा पानेवाले और वेतनमान को सत्यानारायण के प्रसाद की पुड़िया मानकर चलनेवाले समर्थ लोग पुछवा रहे हैं-‘और कितना चाहिए ?’ हर दस साल में तुम्हारे ही लोग वेतनमान को पुनरीक्षित कर रहे हैं। उसी जाति और प्रवृत्तियों के लोग वेतनमान पुनरीक्षण आयोग में है ,जो इधर रोक रहे हैं। नियमतः वे सिफाारिश दे रहे हैं ,वित्तीय बहानों से तुम रोक लगा रहे हो। यह ढोंग,यह तमाशा,यह नौटंकी किसलिए ? जनता के मनोरंजन के लिए ? हितग्राही हकदार तुम्हारे इस मनोरंजक खेल में फुटबाल बने हुए हैं। विधायिका चुप है। कार्यपालिकाएं क्रीड़ा कर रही है। न्यायपालिका कहती है कि जब हमारे पास मामला आएगा तब देखेंगे। सारा लफड़ा इसी देखने और दिखाने का है। चुनाव पास में हैं।

Thursday, September 24, 2009

पिंजरे पंखेदार

तरह तरह के पक्षियों के जू में
हरे ,पीले ,सफेद ,लाल तोते
संग बिरंगी चिड़िया
और सब उड़ रहे थे बार बार
अपने अपने पिंजरों की हदों में
सबके पास थे अपनी जरूरत भर पंखे
‘‘ कौन हैं ये जू बनानेवाले ?‘‘ बच्चों ने पूछा
मैं इस सवाल को टाल गया
मैंने कहा:‘‘ वो मोर देखो
जंगल में मोर नाचता है तो कौन देखता है ?
और मैंने देखा है कि नहीं देखा
मैंने मोर केो कभी नाचते पिंजरे में ।

बच्चों ने फिर पूछा:‘‘ हम यहीं क्यों नहीं रहते ?‘‘
रोज आएंगे जू में ,कितना अच्छा लगेगा !‘‘
मुझे अपनी नौकरी याद आयी
बच्चों की पढ़ाई और भविष्य
सहकर्मियों की ईष्र्या और द्वैष
राजनीतिक दबाव और मंहगाई
बजट के पिंजरे फड़फड़ाती आवश्यकताएं,
अपने हांफते हुए अस्थमिक फेफड़ो की दवाई
शिक्षा ,उच्च शिक्षा और तकनीकी शिक्षा के बदलते तेवर
मैं अब किन्हें देखूं ....
बच्चों के सपने या पिंजरों में बंद परिंदे ?
या उन लोगों को
जिनके पिंजरे हैं पंखेदार

जू में बच्चों का देखता हूं तो सोचता हूं
क्या आनेवाली पीढ़ी के पास
पिंजरों को उड़ा सकनेवाले पंखे होंगे
या कभी ऐसी भी दुनिया होगी जहां
पिंरे नहीं होंगे !
10.02.09

Friday, July 31, 2009

आग रहती है घर में


आग रहती है घर में
किसी एक कोने में जलती
सिगड़ी या चूल्हे मंे नहीं
रूप बदलती रहती है वह दिन भर
दिन निकलते ही
खुलती हुई खिड़कियों और
दरवाजों में
चिड़ियों की चहचहाटों से
क्यारियों में बहते पानी में
आंगन बुहारती और पर्दे झटकारती
घर के एक एक कोने से कचरे निकालती
आग जागते हुए अहसास की तरह
चाय की प्यालियों में
भाप सी उभरती है

आग रहती है घर में
घर जो सड़क की भागमभाग ,
शोरगुल ,धूलधक्कड़
बेचैन दिल की तरह धड़धड़ाती हुई
कांपती जमीन से कुछ दूर
औघड़ सा बसा है
सैकड़ों आंख में
करकरी बनकर चुभा है

घर क्या है
चार कमरे हैं
ठीक दिल की तरह
रसोई ,पूजाघर ,बैठक ,
और शयनकक्ष
बिना आग के जो
बिल्कुल महत्वहीन
घर की बाई तरफ
बना रखा है
बगीचा एक छोटा सा
आम ,अमरूद ,आंवला ,मीठी नीम
कुछ मौसमी बेलें
सेम ,तुरई ,बरबटी ,
कुछ मौसमी भटे , भुट्टे , चने ,
फल्लियां ,मैथी ,पालक ,
कुछ सदाबहार मिर्चें ,पपीते ,
किनारे किनारे आंगन में गुलाब ,मोंगरे ,
रजनीगंधा ,हरसिंगार ,अमलतास ,
उन सब में रहती है आग
जैसे वे सब उसमें रहते ह
आग रहती है घर में
और खण्ड खण्ड होकर
बंट जाती है हम सब में
उसमें , इसमें ,
आने जाने वाले जाने अनजाने
जाने अनजानों में
दूधवाले और अखबारवाले में
गैस के सिलिण्डर के लिए भी
झगड़ती है आग
हंसते गुनगुनाते हुए फिर
पतीली में पक जाने के लिए
माचिस को तीली से
रगड़ती है आग

आग जब मौज में आती है
तो चुहल करती है
और शांत होते ही आस्था में
बदल जाती है
आग तर्जन ,वर्जन ,और गर्जन तक
सैकड़ों जिम्मेदारियों में उभरती है
सिर पै चढ़ती है ,
गले में उतरती है
आग जब रूठती है तो
बैठ जाती है एक तरफ
हाथ मलने और
पैर रगड़ने की कवायदें
उसे करती हैं गुलाबी

आग मगर
खरीदी और बेची नहीं जा सकती
आग ऊगती है अपने आप
जैसे ऊगती है
जंगल में तुलसी
और गमले में पलती है
क्योंकि
आग रहती है घर में

हां
आग रहती है घर में

300709/010809
कुमार कौतुहल

Wednesday, July 22, 2009

संधियों के एवरेस्ट में हिलेरी


अमेरिका से हिलेरी आई हैं। वे परमाणुओं से बने एवरेस्ट को फतह करने आई हैं। उनके मित्र एवं पोषित राष्ट्र पाकिस्तान ने जिस ताज होटल पर सीरियल धमाकों की साजिश रची थी , वहीं वे ठहरी हैं। वहां ठहरने की ख्वाहिश उन्हीं की थी। शायद वे देखना चाहती है कि इस मरदूद ताज में ऐसी क्या बात है कि आतंकवाद का उस पर जरा ळाी असर नहीं हुआ। ट्विन-टावर की तरह वह ध्वस्त क्यों नहीं हुआ ? उलटे भारत के सैनय रक्षण का लोहा विश्वशक्तियों की छाती में उतर गया । अमेरिका की आण्विक और रक्षण प्रौद्योगिकी से अपने सुरक्षा कवच रचनेवाला पाकिस्तान भारत के कड़े तेवर से घबरा गया । जो पाकिस्तान ट्विन-टावर गिराने के बाद नहीं घबराया क्योंकि बुश अपने ही थे , वह भारत के ताज का बालबांका न करने के बाद घबराया।
बात में ट्विस्ट है। ट्विस्ट यह है कि बुश का मित्र लादेन जिन्दा भी है और मर भी गया है। मगर बुष सत्ता ये गण् । फिर पीछे पीछे मुशर्रफ़ भी पूरी तरह सुरक्षित सत्ता से बाहर गए। अब अमेरिका में बराक आमबामा आ गए है जो अमेरिका को भावुकता में मुस्लिम देश कह दिया करते है। मगर भारत स्थिर बना हुआ है। वही सोणी-देश ,वही मनमोहन-राष्ट्र।
पाकिस्तान और अमेरिका बहुत सोच-समझकर कदम रख रहे है। ताज होटल के मुजरिम बंदी कसाब का हिलेरी के भारत आने पर सच का स्वीकार करना ,उसी सोचे समझे कदम का एक सिरा है। पिछले राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की पत्नी और अमेरिका की वत्र्तमान विदेशमंत्री हिलेरी क्लिंटन एक ’बिल’ लेकर आई हैं। वैसा बिल नहीं जो ताज को उन्हें देना है। ताज में तो वे राजकीय मेहमान हैं। वे लेकर आई हैं भारत द्वारा परमाणु परिसीमन की शर्त पर परमाणु सहयोग देने का बिल। इस बिल के अंदर पाकिस्तान की सुरक्षा का कवच और अमेरिका का भविष्य सुरखित है। इस बिल का नाम ‘परमाणु -संधि’ है।
भारत एक संधि-प्रधान देश है। भारत और ईस्ट इंडिया कंपनी की संधि इतिहास प्रसिद्ध है। वह हमारी परतंत्रता का शिलालेख है। स्वतंत्र होने पर हमने ‘पंचशील-संधि‘ की और हिन्दी चीनी भाई भाई के बैनर तले भारत का सबसे पहला और बड़ा आक्रमण झेला। हमारा चीनी भाई अमेरिका और पाकिस्तान का दोस्त है। इसलिए हम सुरक्षा की दृष्टि से रूस की तरफ बढ़े। इसके नतीजे में मास्को और तासकंद की संधियों हमने कीं। दुर्योग से हमने इसी समय नेहरू और शास्त्री को खोया। फिर शिमला संधि हुई। संधि को ही समझौता कहते हैं। इसके बाद हमने इंदिरा को खोया और पाकिस्तान ने जुल्फीकार अली को। लंका और भारत के बीच की संधि हुई और उसके बाद राजीव को हमने खो दिया। फिर आया पाक हिंद सीमापार आवागमन का लाहौर-समझौता । उसी के पीछे पीछे चला आया कारगिल सीमा युद्ध। आपदाएं क्या हमेशा संधियों के पीछे से होकर आती हैं ?
अब हमने परमाणु संधि की है। संधि का एक अर्थ दरार भी होता है। जब जब संधियां होती हैं ,किसी दरार की शुरूआत होती है। दबा हुआ षड़यंत्र उन्हीं दरारों में से फूटकर इस तरफ रिस आता है। परमाणु संधि या करार के अंतिम नतीज़ों का हम बेकरारी से इंतज़ार कर रहे हैं। एक हिलेरी ने त्वेनसेंग के साथ हमारे एवरेस्ट पर चढत्रकर कीर्तिमान बनाया था। यह हिलेरी ओबामा के साथ परमाणुसंधि के एवरेस्ट पर चढत्रकर उसका संधिविग्रह कर कहीं ‘ईव‘(शाम) को भारत में ‘रेस्ट‘(ठहराने,टिकाने, आराम कराने )का इंतजाम तो नहीं कर रही ? यह मेरा ख्याल है और भारतीय संविधान के तहत मैं अपने ख्याल के लिए स्वतं़ हूं। मैं क्या करूं हर संधि मंझे हमेशा उस बेवफ़ा मेहबूबा की तरह लगती है जो हमेशा काम निकलने कगे बाद खूबसूरत वायदों को तोड़ दिया करती है। मुहब्बत के ऐव (ईव)-रेस्ट से गिरने वाले किसी मासूम और मायूस कवि ने ही यह शेर लिखा होगा -‘ हुई शाम उनका ख्याल आ गया ।’ 220709

Tuesday, July 21, 2009

अंधेरे के जुगनूं


पचासों सालों से दीवाली
नहीं मनी थी उनके घरों में
रहता था शोक वहां
अपने बूढ़े परिवार के साथ
दीवाली के खास दिन
संस्कार उन्हें अपनी चादरें देकर
पैताने सोता था

मां कहती थी और बताते थे भाई भी
कि मैं उस परिवार का
पचासों साल बाद जलनेवाला दिया हूं
पचासों साल बाद होनेवाली पूजप हूं
पचासों साल बाद फूटनेवाला फटाखा हूं
ढेरों आंधियां चलीं ,गर्मी तपी
बारिसों में भीगे कितने साल
कितनी फूंकों में मैं आजमाया गया
स्नेह सब तरफ सूखता रहा
मैं अपने अंदर के गुबार के भरोसे
गैस के चूल्हों की तरह जलते रहा
मगर एक दिन संयोग से
दीवाली की पूजा के बाद
मेरे ज्येष्ठ अग्रज बुझ गए
एक द्वैष जो प्रतीक्षित था मुझे बुझाने
वह रोया भी और खुश भी हुआ
बोला ‘‘ अब दिये नहीं जलेंगे फिर पहले की तरह ‘‘
मैंने मुस्कुराकर कहा ‘‘ मैं अभी जिंदा हूं और
मेरे जीते जी नहीं मर सकती दीपावली ‘‘
द्वैष ,ईष्र्या ,दंभ और अहंकार संगठित होकर भी
नहीं बुझा सकते उत्सव के पंक्तिबद्ध दिए
वे मेरे अंदर हैं
अंधेरे के ढेर में जुगनुओं की तरह

डा .रा.रामकुमार

हमारी शिक्षा व्यवस्था : एक पिल्ला संस्कृति

जैसे एक इलाका होता हे जो बांट लिया जाता है ।भिखारी बांट लेते हैं कि यह इलाका मेरा है। चोर बांट लेते हैं कि यह इलाका मेरा। पुलिस का इलाका भी बंटा होता है। राजनैतिक इलाके पार्टियां बांटती हैं। विचारों के भी इलाके बंटें होते हैं। यह विचार बुद्धदेव के इलाके का है, यह ममता के । यह शरद के इलाके का है यह देशमंख के, यह लालू के इलाके का हैं यह सिन्हा के । यह विचार मोदी के इलाके का है तो यह ठाकरे का।
ऐसे ही व्यवस्था के सभी इलाके होते है। राजस्व में ,सुाक्षा में ,बिजली में ,उद्योग में निर्माण में इलाकावाद कूटकूटकर भरा होता है ।रेल कौन चलाएगा ? पेट्रोलियम कौन पियेगा ? कोयला का इलाका कौन बगलाभगत संभालेगा और शिक्षाके इलाके में किस कागभगोड़ा को बिठाया जाएगा इसकी भी अलग राजनीति है ।
इधर एक समाचार मेरे सामने हैं। ऊपर से देखने में लगता है कि यह जनहित का समाचार है लेकिन वह राजनीति की पाकशाला का पकवान्न है। खबर है कि शिक्षकों को शिक्षा का काम छोड़कर बाकी के कामों में संलग्न कर अभी तक मुख्यालयांे में बैठा लिया गया है।दूरस्थ इलाकों में पाठशालाएं शिक्षक विहीन है। और शिक्षक सचिवालयों मे कलेक्टरेट में जनपद में जनसंपर्क विभागों में डिपुटेड हैं ,पूरी वजनदारी के साथ स्थापित हैं। जनहित में मांग की जाती है कि ऐसे शिक्षकों को तत्काल अपने अपने मूल स्थानों शिक्षा केन्द्रों या पाठशालाओं में पढ़ाने के लिए मुक्त कर दिया जाए। मजे की बात ये है कि जो शिक्षक पढ़ाना नही चाहते और राजनीति करना चाहते हैं, वे ही तो राजनैतिक संबंधों और अधिकारियों से सांठगांठ के दम पर मुख्यालयों के सर्वसुविधायुक्त स्वर्गप्राय-स्थानों पर पदस्थ हैं।
मुख्यालयों में जमे रहने की इच्छा रखनेवाले कूल और स्मार्ट ऊर्जावान महारथियों ने यह समाचार पढ़ा होगा।उन लोगों ने ळाी यह समाचार पढ़ा होगा जो स्थान न होने पर भी अतिशेष की परिभाषाओं को चिढ़ाते हुए जमे हैं।एक विषय के दो शिक्षक चाहिए और जुगाड़ के बलबूते पर छः-छः सात-सात शिक्षक जमे हुए है। ऐसे जामननुमा या जड़दारी शिक्षकों कौन हटाए ? जो एक बार जहां जमा वहां जमा ही रह जाता है। जिसमें क्षमता होती है वह मनचाही जगह तबादला करा लेता है। जिसमे दम होता है वह अतिशेष होकर भी जमा रहता है। खाली पड़े स्थानों से उसकी तनख्वाह निकलती रहती है। उच्च अधिकारियों को चुप रहने के लिए निर्देश या चुप रहने की कीमतें मिलती रहती हैं। स्थानांतरण नीति बनी जरूर है लेकिन उस पर अमल करना उच्चअधिकारियों के व्यापार-नीति के खिलाफ है। उस पर अधिकारियों का अपना अर्थशास्त्र , अपनी वाणिज्य नीति काम करती है। यानी पैसा फेंक तमाशा देख।
कुलमिलाकर शिक्षा की चिंता जनहित का विषय नहीं है।जनहित का विषय तो यह है कि कौन कहां जमा है और किस मुख्यव्यक्ति के संपर्क में है? जो वहां जाना चाहता है वह किस दमदार का अनुयायी या आदमी है? वास्तविक और आदर्श व्यवस्था तो कब की विधवा हो गई। मनचले उससे जहां चाहे वहां मज़ाक कर सकते हैं। एक प्रशासनिक अधिकारी न तो अपने एक प्रोजेक्ट ‘रागदरबारी‘ में शिक्षा व्यवस्था को सड़क के किनारे पड़ी हुई कुतिया कहा था जिसे कोई भी राह चलता अधिकारी
लात मारकर चला जाता है। इस हिसाब से ऐसी शिक्षा व्यवस्था के पिल्ले हुए तमाम ‘तथाकथित पूजनीय‘ शिक्षक। ये पिल्ले जानते हैं कि रोटी कहां मिलेगी और दुम कहां हिलाना है? वे दुम हिलाने और जीभ लपलपाने के लिए अभिशप्त हैं। इन्हं चुनाव जनगणना ,पोलियो ,मतदाता परिचय पत्र , आदि किसी भी काम में लगबा दिया जाता है और वे लग जाते हैं। अधिकारी को बच्चा भी इनके आगे गेंद फेंकता है और ये उसे लाने लपक पड़ते हैं। इनकी यही नियति है। अभी एक प्रांत में विश्व गुरू बनने का ख्वाब देखने वाले एक सनकी उच्चाधिकारी ने शिक्षा व्यवस्था को जिंदा जलाने का मुहिम चलाया है। एक विशेष राजनैतिक छतरी ओढ़कर चलनेवाले इस अधिकारी के सर पर रोजगार के नाम पर नई पीढ़ी को भटकाने और गुमराह करने की जिम्मेदारी आकाओं ने सौंपी है। यह षड़यंत्र शिक्षा को पूरी तरह समाप्त करने का है। रोजगार है कहां ? क्या उन शिक्षकों के हाथ में जो स्वयं रोजगार के अभाव में शिक्षक बने हैं ? सामने के दरवाजे पर मासूम पीढ़ी के आगे रोजगार मूलक शिक्षा का धोका लटका दिया गया है और रोजगार पीछे के दरवाजे से मनमाने दामों में बेचे जा रहे हैं। एक अलगाव प्रधान राजनीति का यह अभियान है कि शिक्षा केवल कलीनों और समर्थों को मिले। तो शिक्षा को जनहित के इलाके से इस छल के साथ खींचा जा रहा है। हडिउयां पिल्लों के बीच फेंकी जा रही है और बाकटियां कोठियों में पकाई जा रहीं हैं।मैकाले ने संस्कृति और शिक्षा का मुखौटा ओढ़कर लाड़ली प्रतिभाओं को बेटी के रूप में कन्यादान करते हुए केवल दहेज देकर बैलों के साथ ब्याह दिया है। 190709

Friday, July 10, 2009

बागवानी-1

गुलाब कट जाता है तब भी
अपनी जड़ें बना लेता है
जमीन के अंदर
उसी मस्ती से फूलता है
जैसे कभी कटा ही नहीं
जबकि फूलों से ज्यादा हैं
उसके जिस्म में कांटे
भोजन बनाने वाली पत्तियां भी
कंटीली हैं जिसकी...
और गुलाब है कि माद्दा रखते हैं
कहीं भी ,कभी भी
ऊग जाने का

बागवानी-2
आज ही पौधों को मोंगरे के
उखाड़कर जड़ से
किया है हमने पंक्तिबद्ध
जगह की सुन्दरता और तरतीबी के लिए
स्थापित हो गए मोंगरे
परिवर्तित जमीन पर भी
खुशी खुशी ।

हम सोच रहे हैं
अभी कुछ दिनों से
यहां से कहीं नहीं जाएंगे अब
अच्छी है यहां आबोहवा ,
शांति है
और सबसे बड़ी बात
जगह छोटी है ,जानी पहचानी है
पहचान है हमारी ।

अजीब बात है
कलमें उगानेवाला आदमी
अपने लिए विकसित नहीं करता
कटकर फिर जी उठने की कला
उसको तो कभी घर फला -
तो कभी शहर ,
वह स्वयं कभी नहीं फला !

बागवानी -3
उलाहना सुनकर
बौराया नीबू और आम भी
एक टोटका था जिसे मैंने आजमाया
इतवार है उस टोटके का दिन कि
अब न फूले बौराए तो काट डालूंगा-
वे बौरा गए
खूब फूले फले तुरई और आम

मगर दफ्तरों में अब भी
बांझ पड़ी हैं फाइलें
उन्हें शर्म नहीं आती नीबू की तरह
आम और तुरई की फलदार
संवेदनशीलता वहां है नदारद
वेतन सरकार की मजबूरी है
और काम के लिए
कलदार वज़न जरूरी है
चाहकर भी मैं उन्हें
नहीं दे सकता ऐन इतवार
कुल्हाडी़ चलाने की धमकी
क्योंकि
उनका इतवार शनिवार से ही
रहता है अनुपस्थित
दफतर की फाइलों से ।

Tuesday, June 9, 2009

उफ़ मेरा वतन !

तप रहा है मन
किन्तु ठण्डा तन
उफ़ मेरा वतन !

दोगली हवा विषाक्त आस्था
जय-ध्वनी को मिल रहा है रास्ता
डूबने लगी लगन की चोटियां
साहिलों में फंस रहा है नाखुदा
क्या करे जतन ,उफ़ मेरा वतन !

चरण चिन्ह रेत के टीलों की ओर
स्वार्थ की कनात के पीछे है भोर
नवविहान का गला दबोचकर
अंधकार कर रहा सुबह का शोर
सुस्त जागरण ,उफ़ मेरा वतन !

न्याय की अंगीठियों में ठूंसकर
हम पका रहे हैं आंख मूंदकर
झूठ के चूल्हे में सच की हौसले,
शक्ति की कढ़ाइयों में गूंथकर
मालेबांकपन , उफ़ मेरा वतन !

हुक्म है पैदा न हो इंसानियत
गर्भ में पला करें हैवानियत
देखते ही गोली मार हो उसे
तोड़ता है जो ग़लत सलाहियत
जिन्दगी दफ़न , उफ़ मेरा वतन !25111975

Tuesday, May 26, 2009

बूढ़ा रोशनदान और खानदानी जादूगर थपेड़े

हवाओं में फिर जादू हुआ है , धूप के पेड़ों से महुआ-सा कुछ चुआ है ,
मेड़ पर बैठाया हुआ है कौतुहल का मंद बच्चा,
अभी ठीक से बांध नहीं सकता वह अपना कच्छा ,
खाट पर बैठी हर औरत-नुमा आकृति को वह अपनी मां समझता है,
हुमककर हुलसता है ,ललककर लपकता है।

एक बिजूका है खेत में ,जो न हंसता है न रोता है,
वह अपने सिर पर औंधाया हुआ घड़ा ढोता है ,
बनाई हुई आंखों से वह कुछ नहीं देखता ,
न अंदर कुछ लेता न बाहर कुछ फेंकता।

एक विषकन्या खेत में चारों तरफ घूमती है,
अनचाहों को उखाड़ती है, चाहे हुओं को चूमती है,
जिन्हें उखाड़ती है वे अदृश्य हो जाते हैं,
जिन्हें चूमती है वे जागते हुए सो जाते हैं ,
एक बुढ़िया बो रही हैं खेत में रहस्यमय सन्नाटा ,
अपनों के लिए मुनाफ़ा, दूसरों के लिए घाटा ,
सम्मोहित भीड़ केवल देखती है तमाशा,
बुढ़िया ने नये सिरे से नए जमूरों को है तराशा,
ताश के खेल की तरह हर पत्ता है हुक्म का गुलाम,
सर्कस के सारे शेर विदूषक हैं, कोई नहीं गुलफाम।

डरोगे तो नहीं अगर मैं एक सच बताऊं ?
अगर मुम्हें जादू की इस नींद से जगाऊं ?
दोस्तों ! वक़्त एक अंधेरी कोटरी में बंद है,
केवल वह स्वप्न देखें इसके सारे प्रबंध हैं ,
इस अंधेरी कोठरी में फैला है उजाले का भ्रम ,
बूढ़े रोशनदान को करना नहीं पड़ता कोई भी श्रम ,
बांट रहे हैं सोए हुए लोगों को पेड़े ,
बूढ़े रोशनदान के ज़रिए -खानदानी जादूगर थपेड़े।

हम कहां हैं ,कहां जा रहे हैं ? पूछना मत,
तुम अब नहीं लगा पाओगे कोई भी जुगत ,
तमाशबीन भीड़ फेंक चुकी है अपना पांसा ,
और समय का शकुनी चिल्ला रहा -’’वह फांसा, वह फांसा !’’
-कुमार कौतुहल . दि.270509

Tuesday, May 19, 2009

हमारा समय

अंधेरे से निकलकर
अलसाई भोर के माथे पर फैले
सिंदूर को पोंछते आता है सूरज
बिल्कुल चुपचाप-
हमारे आसपास।

पूर्वान्ह..मध्यान्ह...अपरान्ह..
समय के परिन्दे के तीन पर ,
तेरे ,मेरे ,उसके ..।
हम सबके किए न किए के
जीवित अभिलेख
रचते हैं इतिहास।

’’ हमारे समय में यह था ,वह था ,
तुम्हारे समय में क्या है ?’’
प्रश्नों की उंगलियां चटखाते उलाहने
कब तक सुनेगा समय...
हमारा समय ,
कब तक जुगालियों के दाने
डालेगा अतीत ?
वर्तमान की चोंच में !
कब तक भोगेंगे हम
अकर्मण्यता का संत्रास ?

व्यतीत के बड़बड़ाते खरखराते
समलय तान के बीच से
अब आने दो नयी तान
अब आए नया राग
अब गाए अपनी ही धुन में
समय... हमारा समय ,
हमारा समय यानी
एक नया आभास ...सप्रयास ।

-कुमार कौतुहल

Wednesday, May 13, 2009

चिंता किस बात की ?

हमारा देश परोपकारियों का देश है. ’ परहित सरिस धर्म नहीं भाई ’ के सिद्धांत पर चलनेवाला देश.
‘ जिओ और जीने दो ’ के नारेवाला देश. जिसको अपनी चिंता है ,वह खुलकर दूसरों की चिंता कर रहा है. जनता की चिंता करनेवाले लाखों करोड़ों लोग हैं. जनता को अगर अपनी चिंता है जो वह बिल्कुल चिंता न करे.उसकी चिंता करनेवाले अनगिनत लोग लाइमलाइट में हैं इस देश में. योगी हैं ,साधु संन्यासी है ,नेता हैं ,अभिनेता हैं . मंत्री हैं ,अधिकारी हैं ,सेना है , पुलिस है , राजनैतिक दल हैं ,उद्योगपति हैं , आदि भी है और इत्यादि भी हैं. जनता के एक एक व्यक्ति की कई कई चीजों की चिंता कई कई लोग कर रहे हैं , साधु संन्यासी तो जनता के इस जीवन की चिंता कर ही रहे हैं ,आनेवाले अनेक जीवन की भी चिंता कर रहे हैं . इतना ही नहीं इस लोक के ऊपर जो परलोक है उसकी भी चिंता कर रहे है. योगी हैं जो खान पान , रहन-सहन ,चाल-चलन ,और स्वास्थ्य की चिंता कर रहे हैं. सिर्फ इतना ही नहीं जनता के साथ साथ देश के स्वास्थ्य , देशीय राजनीति , देश के विदेशों में स्थापित गुप्त बैंको की भी चिंता उन्हें बहुत ज्यादा है. उन्होंने संस्थागत बैंको के स्थान पर अनुयायी रूपी बैंकों की स्थापना की धार्मिक और आध्यात्मिक बैंकबाजी तो कब से चल रही है. हमारी सरकार इस तरह के धार्मिक बैंकों को आयकर में राहत प्रदान करती हैं. योगियों ,आध्यात्मिक एन जी ओ ,धार्मिक संगठनों ने इस तरह की बैंकिग में विशेषज्ञता पा्रप्त कर ली है. परिणामस्वरूप वे पूंजीपतियों की चिंता तो कर ही रहें हैं ,किसानों की चिंता कर रहे हैं. उत्पादन की चिंता उन्हें है तो उत्पादनों में मिलावट की भी चिंता उन्हें है. वे मिलावट के उत्पादन की चिंता भी कर रहे हैं ,जिसके बिना उनका अभियान अधूरा है. यानी केवल वे शुद्ध बाक़ी सब अशुद्ध. यह सब शुद्ध राष्ट्रीयता के नाम पर हो रहा है. हमारी राष्ट्रीयता विदशों में जा रही है. इसलिए इन्हें देश की जितनी चिंता है ,उससे कहीं ज्यादा विदेशों की चिंता है. इसी के चलते वे ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के सच्चे उद्गाता हो गए हैं. वे देश के विदेश स्थित मसीहा हैं. इसीलिए भारत में एक शिविर लगाते हैं तो विदेशों में पांच लगाते हैं. यह सारे शिविर शिविरार्थियों के पैसों से लगते हैं. जो पैसा आयकर से मुक्त होकर बाढ़ की शक्ल में आता है , वह कहां जाता है ? यह या तो वे जानें या वह भगवान ,जिसके मार्गदर्शन में वे काम करते हैं. भाई लोगों की तरह उनके उस भगवान को वे खुद नहीं जानते. विदेशांे में उनके ज्यादा रहने का गणितीय सत्य यह है कि भारत कितना भी वृहद्क्षैत्रीय हो , है तो एक ही. विदेशों की संख्या मित्र और शत्रु राष्ट्रों सहित सैंकड़ों से ऊपर है. चारों तरफ से भारत विदेशों से घिरा है.चने के दाने के बराबर एक विदेश लंका है तो मटर के दानों जैसे बर्मा ,नेपाल ,तिब्बत और भूटान बिल्कुल शरीर की चमड़ी की तरह भारत से चिपके हुए हैं. पाकिस्तान भी चिपका हुआ विदेश है. वह तो एक पेट ,एक दिल ,एक मुंह आदि के रूप में पैदा होनेवाली पराप्राकृतिक ,एब्नार्मल ,स्पेशल संतान की तरह अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है. पंजाब वहां तो यहां भी. बंगाल यहां तो वहां की तर्ज़ पर .
कुलमिलाकर , धार्मिक अखाड़े ,योगी और संन्यासी भारत की चिंता कर रहे हैं और विदेश की भी. भारत में पूर्वाभ्यसस करते हैं , असली कार्यक्षेत्र , असली रंगमंच तो उनका विदेश है. विदेश उनके गंण को विश्वव्यापी बनाता है. विदेश पलट को आज भी हमारे देश की गरीब जनता आश्चर्य से देखती है कि देखो विदेश घूम रहा है!यह जनता जो गरीब है, जिसके लिए दिल्ली ही नहीं अपने प्रदेश की राजधानी भी एक कपोलकल्पना है ,उस तक पहुंचने की बात तो दूर है. वह जनता उन लोगों पर भगवान का विशेष आशाष मानकर उन्हें सम्मान की दुष्टि से देखती है जो विदेशों को लक्ष्य बनाकर चलते हैं .उद्योगपति ,राजनीतिक ,साधु ,संन्यासी ,योगी ,भोगी सहित जनता उस रोगी को भी विशेष सम्मान से देखती है जेा विदेशों में जाकर इलाज करवाते हैं. क्योंकि उस बेचारा-जनता का इलाज तो देश कर ही नहीं सकता.
ऐसी जनता की चिंता विदेशों अक्सर दौरा करनेवालों को है. इसका अर्थ यह हुआ कि देश में रहकर देश की चिंता तो की ही नहीं जा सकती. देश की सेवा करनी हो तो विदेशों को अपना ठिकाना बनाना पड़ता है. देश का पैसा विदेशी बैंक में ही संरक्षित रह सकता है. ये जो योगी और संन्यासी ,आध्यात्मिक- उद्योगपति विदेशों से धन भारत में ला रहे हैं और अपने धर्मसंस्थान , योग उद्योग, आयुर्वेद कारखाने और आध्यात्मिक उद्योगों में लगा रहे हैं, चतुर पूंजीपति हैं.धर्म हमारे देश का वह सफल पूंजीवादी उद्योग है जिसमें काल्पनिक और मानसिक प्रडक्ट बेचे जाते है और भौतिक पार्थिव द्रव्य वसूल किया जाता है. गुमनाम लेखकों की अन्य व्यावहारिक बातों को बातों को मुद्रित कर उसे सदस्यता के नाम पर बेचकर धन उगाहा जा रहा है. गरीबों को ऐसे आध्यात्मिक संगठनों में कोई जगह नहीं मिलती .शांति और ईष्वर तक पहुंचना तो वहां भी निर्धनों के लिए असंभव है.
यही सच्ची चिंता है ,सच्ची देश सेवा है.राजनीति पर ,भ्रष्टाचार पर ,कदाचार पर ,व्यभिचार पर मानसिक- शाब्दिक हमला करते हुए अपने तथाकथित सात्विक नैतिक और सदाचारी उद्योग को भैतिक संसाधनों के वैभव के साथ खड़ा किया जा रहा है और इस लोक को भोगा जा रहा है. ये वही धार्मिक उद्योग हैं जो अपने जनसंपर्क कौशल के बल पर राजनैतिक पैठ बनाते हुए ,राजनैतिक महापुरुषों से सांठ-गांठ करते हुए ,भारतीय प्रजातंत्र के वोटबैंक के लिए छद्म रूप से प्रचार प्रसार भी करते हैं. इस प्रकार देश की चिंता करते करते धर्मपुरुष ,संन्यासी और योगी अचानक राजनीति में प्रवेश करने की इच्छा जाहिर करने लगते हैं. स्वाभिमान के नाम पर राष्ट्रीय राजनैतिक दल की महात्वाकांक्षा जागने लगती है. समझा जा सकता है कि ऐसा दल या यूं कहें कि ‘ भानुमति के पिटारे से निकला ऐसा राजनैतिकदल ’ , प्रजातांत्रिक होगा या व्यक्तिवादी ? जनतांत्रिक होगा या सामंतवादी ? गणतंत्रीय होगा या साम्राज्यवादी ? जनतंत्र के नाम पर खड़े होनेवाले इस ‘ विशुद्ध व्यापारवादी राजनैतिकदल ’ की चिंता निरीह जनता करे या न करे ?
निष्कर्षतः इसकी भी चिंता जनता न करे. धर्म में मूर्खता और आकाशीय-तत्त्व का सनातन महत्त्व भले ही हो ,राजनैतिक दल जैसे पार्थिव दल में इतने कांटे होते हैं कि धर्म के नाम पर फुलाए गए एक भी फुग्गे का यहां उड़ना संभव नहीं है. किसी भी कांटे की एक तुच्छ सी नोंक उनकी हवा निकाल देगी. करोड़ों अरबों का दान बटोरकर जो योग-संस्थान विश्वसनीय दवाएं गरीब जनता को सस्ते में उपलब्ध नहीं करा पाया और मुनाफे के तर्क प्रस्तुत करता रहा , वह राजनीति में आकर भी वही करेगा ,मुनाफे का सौदा. अब चिंता इस बात की है कि जो व्यक्ति योग के माध्यम से करोड़ों लोगों को मानसिक शारीरिक ऊर्जा प्रदान कर रहा था ,वह विकृत चेहरे मे परिवर्तित होता जा रहा है. 04-060409