Tuesday, July 21, 2009

हमारी शिक्षा व्यवस्था : एक पिल्ला संस्कृति

जैसे एक इलाका होता हे जो बांट लिया जाता है ।भिखारी बांट लेते हैं कि यह इलाका मेरा है। चोर बांट लेते हैं कि यह इलाका मेरा। पुलिस का इलाका भी बंटा होता है। राजनैतिक इलाके पार्टियां बांटती हैं। विचारों के भी इलाके बंटें होते हैं। यह विचार बुद्धदेव के इलाके का है, यह ममता के । यह शरद के इलाके का है यह देशमंख के, यह लालू के इलाके का हैं यह सिन्हा के । यह विचार मोदी के इलाके का है तो यह ठाकरे का।
ऐसे ही व्यवस्था के सभी इलाके होते है। राजस्व में ,सुाक्षा में ,बिजली में ,उद्योग में निर्माण में इलाकावाद कूटकूटकर भरा होता है ।रेल कौन चलाएगा ? पेट्रोलियम कौन पियेगा ? कोयला का इलाका कौन बगलाभगत संभालेगा और शिक्षाके इलाके में किस कागभगोड़ा को बिठाया जाएगा इसकी भी अलग राजनीति है ।
इधर एक समाचार मेरे सामने हैं। ऊपर से देखने में लगता है कि यह जनहित का समाचार है लेकिन वह राजनीति की पाकशाला का पकवान्न है। खबर है कि शिक्षकों को शिक्षा का काम छोड़कर बाकी के कामों में संलग्न कर अभी तक मुख्यालयांे में बैठा लिया गया है।दूरस्थ इलाकों में पाठशालाएं शिक्षक विहीन है। और शिक्षक सचिवालयों मे कलेक्टरेट में जनपद में जनसंपर्क विभागों में डिपुटेड हैं ,पूरी वजनदारी के साथ स्थापित हैं। जनहित में मांग की जाती है कि ऐसे शिक्षकों को तत्काल अपने अपने मूल स्थानों शिक्षा केन्द्रों या पाठशालाओं में पढ़ाने के लिए मुक्त कर दिया जाए। मजे की बात ये है कि जो शिक्षक पढ़ाना नही चाहते और राजनीति करना चाहते हैं, वे ही तो राजनैतिक संबंधों और अधिकारियों से सांठगांठ के दम पर मुख्यालयों के सर्वसुविधायुक्त स्वर्गप्राय-स्थानों पर पदस्थ हैं।
मुख्यालयों में जमे रहने की इच्छा रखनेवाले कूल और स्मार्ट ऊर्जावान महारथियों ने यह समाचार पढ़ा होगा।उन लोगों ने ळाी यह समाचार पढ़ा होगा जो स्थान न होने पर भी अतिशेष की परिभाषाओं को चिढ़ाते हुए जमे हैं।एक विषय के दो शिक्षक चाहिए और जुगाड़ के बलबूते पर छः-छः सात-सात शिक्षक जमे हुए है। ऐसे जामननुमा या जड़दारी शिक्षकों कौन हटाए ? जो एक बार जहां जमा वहां जमा ही रह जाता है। जिसमें क्षमता होती है वह मनचाही जगह तबादला करा लेता है। जिसमे दम होता है वह अतिशेष होकर भी जमा रहता है। खाली पड़े स्थानों से उसकी तनख्वाह निकलती रहती है। उच्च अधिकारियों को चुप रहने के लिए निर्देश या चुप रहने की कीमतें मिलती रहती हैं। स्थानांतरण नीति बनी जरूर है लेकिन उस पर अमल करना उच्चअधिकारियों के व्यापार-नीति के खिलाफ है। उस पर अधिकारियों का अपना अर्थशास्त्र , अपनी वाणिज्य नीति काम करती है। यानी पैसा फेंक तमाशा देख।
कुलमिलाकर शिक्षा की चिंता जनहित का विषय नहीं है।जनहित का विषय तो यह है कि कौन कहां जमा है और किस मुख्यव्यक्ति के संपर्क में है? जो वहां जाना चाहता है वह किस दमदार का अनुयायी या आदमी है? वास्तविक और आदर्श व्यवस्था तो कब की विधवा हो गई। मनचले उससे जहां चाहे वहां मज़ाक कर सकते हैं। एक प्रशासनिक अधिकारी न तो अपने एक प्रोजेक्ट ‘रागदरबारी‘ में शिक्षा व्यवस्था को सड़क के किनारे पड़ी हुई कुतिया कहा था जिसे कोई भी राह चलता अधिकारी
लात मारकर चला जाता है। इस हिसाब से ऐसी शिक्षा व्यवस्था के पिल्ले हुए तमाम ‘तथाकथित पूजनीय‘ शिक्षक। ये पिल्ले जानते हैं कि रोटी कहां मिलेगी और दुम कहां हिलाना है? वे दुम हिलाने और जीभ लपलपाने के लिए अभिशप्त हैं। इन्हं चुनाव जनगणना ,पोलियो ,मतदाता परिचय पत्र , आदि किसी भी काम में लगबा दिया जाता है और वे लग जाते हैं। अधिकारी को बच्चा भी इनके आगे गेंद फेंकता है और ये उसे लाने लपक पड़ते हैं। इनकी यही नियति है। अभी एक प्रांत में विश्व गुरू बनने का ख्वाब देखने वाले एक सनकी उच्चाधिकारी ने शिक्षा व्यवस्था को जिंदा जलाने का मुहिम चलाया है। एक विशेष राजनैतिक छतरी ओढ़कर चलनेवाले इस अधिकारी के सर पर रोजगार के नाम पर नई पीढ़ी को भटकाने और गुमराह करने की जिम्मेदारी आकाओं ने सौंपी है। यह षड़यंत्र शिक्षा को पूरी तरह समाप्त करने का है। रोजगार है कहां ? क्या उन शिक्षकों के हाथ में जो स्वयं रोजगार के अभाव में शिक्षक बने हैं ? सामने के दरवाजे पर मासूम पीढ़ी के आगे रोजगार मूलक शिक्षा का धोका लटका दिया गया है और रोजगार पीछे के दरवाजे से मनमाने दामों में बेचे जा रहे हैं। एक अलगाव प्रधान राजनीति का यह अभियान है कि शिक्षा केवल कलीनों और समर्थों को मिले। तो शिक्षा को जनहित के इलाके से इस छल के साथ खींचा जा रहा है। हडिउयां पिल्लों के बीच फेंकी जा रही है और बाकटियां कोठियों में पकाई जा रहीं हैं।मैकाले ने संस्कृति और शिक्षा का मुखौटा ओढ़कर लाड़ली प्रतिभाओं को बेटी के रूप में कन्यादान करते हुए केवल दहेज देकर बैलों के साथ ब्याह दिया है। 190709

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