Monday, April 11, 2011

अन्ना हजारे का ब्लडप्रेशर और मेरा

अब मेरा ब्लड प्रेशर नार्मल है।
जब से अन्ना हजारे ने नीबू का रस पिया है तभी से मैं खटास से भरा हुआ था। ब्लडप्रेशर और नशा उतारनेवाले नीबू ने मुझ पर ‘उल्टा असर’ कर दिया था। साइड इफेक्ट जानबूझकर नहीं कह रहा हूं। साइड इफेक्ट के मामले में ‘जो लेता है उसी को होता है’ का भाव है। ‘उल्टा असर’ कुछ कुछ रेडियो एक्टिविटी टाइप का है। पीता कोई और है नशा किसी ओर को हो जाता है। घरेलू मामलों में इसकी तुलना वेतन या रिश्वत से की जा सकती है। वेतन मिलता मिस्टर को है और नशा मिसेस को हो जाता है। रिश्वत वेतन का जुड़वा भाई है। ऐसा जुड़वा भाई जिसमें एक खाता है तो दूसरा फूलकर कुप्पा हो जाता है। इकन्डा वेतन तो घर का न घाट का।
मैं बता रहा था कि मेरा ब्लडप्रशर नार्मल है।
बल्डप्रेशर तो अन्ना हजारे का भी नार्मल है। अब उनकी वाणी में आत्मविश्वास और ‘जीत गए’ के भाव का ‘हाईपर-टन्ेशन’ चल रहा है। बाबा रामदेव योग के माध्यम से अपना ब्लडप्रेशर नार्मल बनाए रखने का जुगाड़ कर रहे हैं। राजनारायण के वकील रहे प्रशांत भूषण अपने बेटे के साथ उस कमेटी में आ गए हैं जो भ्रष्टाचार विरोधी बिल का मसविदा तैयार करेंगे। हजारे के खास एनजीओ अरविंद केजरीवाल भी कमेटी में हैं। अन्ना हजारे भी कमेटी में आकर अब पूरा आहार ले रहे हैं और बढ़िया बिहार कर रहे है।
प्रणव मुखर्जी , कपिल सिब्बल ,चिदम्बरम वगैरह भी बिल्कुल फिट हैं और उतने ही हिट ठहाके दे रहे हैं जितने अन्ना हजारे के समर्थक दे रहे हैं। यानी दोनों पक्ष मजे में हैं और भ्रष्टाचार भी, मैंने सुना है कि पूरी नींद ले रहा है और हमेशा की तरह उसका भी ब्लडप्रेशर नार्मल है। ब्लडप्रेशर मेरा भी नार्मल है,जी, जैसा कि मैं पहले भी बता चुका हूं।
जी ? क्या कहा अब आपका बढ़ रहा है। प्लीज़ , रिलैक्स , होल्ड योअर सेल्फ़, ब्रीथ डीपली , मैं बस मुद्दे पर ही आ रहा हूं। आप ठीक कह रहे हैं कि जब सबका ब्लड प्रेशर नार्मल है तो फिर मैं पूर्ण विराम लगाकर बात खत्म क्यों नहीं कर रहा हूं। दरअसल मैं आपको कुछ बताना चाहता हूं। मैं बताना चाहता हूं कि मेरा ब्लडप्रेशर हाई क्यों हुआ था और नार्मल क्यों हुआ।
आदरणीय भारतीय बंधुओं जिन दिनों ये त्रिअंकी महानाटक यानी तीन दिवसीय अनशन चला और चतुर्थ एपिसोड में जिसका पटाक्षेप हुूआ उन दिनों मैं इतिहास लेखन कर रहा था। अपने आप बेख्याली में। कुछ बेहोशी और कुछ नीम-होशी में। कुछ सूत्र कागज पर उतारे थे। जब अन्ना हजारे ने नीबू का उतारा लिया और उनकी टीम घोषित हुई तभी से मेरा खून चढ़ने लगा। पहले आप मेरे इतिहास लेखन की रफ हैडिंग यानी सूत्र देख ले और मेरे निष्कर्ष का पूर्वानुमान कर लें। जिस कागज को देखकर मेरा ब्लडप्रशर बढ़ा और शांत भी हुआ वह एन्वास की तरह आपकी सेवा में हाजिर है...........अन्ना हजारे , बाबा रामदेव , भ्रष्टाचार, भ्रष्टाचार उन्मूलन, महाभ्रष्टाचार, भगतसिंह और महात्मा गांधी, सुभाषचंद्र और जवाहरलाल, पहली आजादी, इमरजेन्सी, जयप्रकाश और संपूर्ण क्रांति , दूसरी आजादी, राजनारायण और मोरारजी देसाई , चरणसिंह और जेठमलानी, चंद्रशेखर (सीधे-सीधे प्रधानमंत्री), निजी सुरक्षा और प्रधानमंत्राणी, मिस्टर क्लीन ,बोफोर्स और विश्वनाथ प्रताप सिंह, तीसरी जातियों को आरक्षण, विलंबित ताल में राग अटलबिहारी, लाल-रथ की राम-यात्रा , सिंग! व्हेअर इज़ किंग?, विदेशी धन , भ्रष्टाचार और रामदेव, रामदेव बनाम अन्ना हजारे.............तालियां!!!
तालियां इसलिए कि नाटक के अंदर के नाटक को आपके इतिहासबोध ने इस कदर समझ लिया कि अब कोई नाटक कारगर नहीं होनेवाला। जी, मैं इसी स्तर का विश्वास करता हूं। मैं विश्वास करता हूं कि इन सूत्रों को बंटकर इतिहास की उमेटन के जरिये एक शानदार लेख अब तक बहुतों ने तैयार कर लिया होगा। एक एक पुस्तक भी कइयों ने रच डाली होगी। हम चेतन भगत के देश के चेतनाशील प्राणी हैं। ऐसी बातों पर पुस्तक लिखने में हमें देर नहीं लगती।
मैं उपसंहार लिखता हूं। अक्सर ऐसा होता है कि घटना घटती है और मैं उपसंहार लिखना शुरू कर देता हूं।
इस बार भी ऐसा ही हुआ। उधर दिल्ली में देशभर के भ्रष्टाचार विरोधी एकत्र हो रहे थे और मैं बेचैनी से उपसंहार लिख रहा था। मैं रामदेव के दिल्ली पहुंचने का इंतजार कर रहा था। उन्होंने रामकथा आयोजित की हुई थी। उधर रामलीला चल रही थी और दिल्ली में अन्ना का गरबा। आखिर रामदेव भी पहुंचे। पहुंचना ही था। मैं जो इंतजार कर रहा था। वे चिंघाड़चिघाड़कर बोले। ऐसा बोलते बोलते उनका गला खराब हो गया है और वे अपना मूल स्वर खो बैठे हैं। वे भ्रष्टाचार का भविष्य देख रहे थे। मैं भारत के भविष्य को लेकर चिंतित था। चिंता तो सुना है हजारे और किरन बेदी को भी थीै। हजारे और किरन बेदी की पृष्ठभूमि लगभग बराबर की है। अन्ना हजारे सेना से त्यागपत्र देकर देश की चिन्ता में घर लौट आए थे। किरन बेदी भी पुलिस की नौकरी से त्याग पत्र देकर घर में बैठकर देश की चिन्ता कर रही थीं। दोनों में खूब गुजर रही थी। मैंने देखा कि सवाल मीडिया अन्ना से करती थी और कभी अरविंद और कभी किरन बेदी अन्ना के कान में अपना मुंह छुआ देते थे। अन्ना तमक कर अपना पुख्ता इरादा व्यक्त करते थे। यह इरादा सामूहिक भोज में रखे उस पतीले जैसा था जिसमें से आमंत्रित जितना चाहे उतना भात निकाल सकता था। मैं खुश हो रहा था क्योंकि इतिहास मेरे हिसाब से घट रहा था।
फिर कमेटी की घोषणा होते ही मैं उछल पड़ा। ‘घट गया , घट गया , इतिहास घट गया।’ मैं आर्केमिडीज़ की तरह चिल्लाने लगा। पत्नी ने मुझे ‘मुहल्लेवाले क्या कहेंगे’ का डंडा मारकर शांत किया। मैं उसे कह नहीं पाया कि बेवकूफ इतिहास घट गया है और तू मोहल्लेवालों से डर रही है।
खैर ,सारा देश जश्न मना रहा था। पर मुझे दूसरे ही फटाके के फूटने का इंतजार था। जब दूसरे दिन भी वह फटाका नहीं फूटा तो मैं टूट गया। मेरी खुशी को पाला मार गया।
दरअसल मैं सोच रहा था कि बाबा रामदेव कुछ बोलें। उनका नाम कमेटी में नहीं आया था और मैं उनके फटने का इंतजार कर रहा था। भ्रष्टाचार मिटाने का अभियान उन्हीं ने छेड़ा था। विदेश में जमा धन को देश में लाने का अभियान भी उन्हीं का था। सत्ता की नाक में वर्षों से वे दम किये हुए थे। वे कई चेहरे जो अन्ना के आसपास एकत्र हो गए थे ,वे उनके आसपास होते थे। तीन दिन में वे हासिये में आ गए। मैं इसके बाद का सारांश लिख चुका था। पर वह लिखा हुआ कागज से जमीन पर नहीं आ रहा था। मेरा ब्लड प्रेशर यहीं से बढ़ना शुरू हुआ। गरीबी हटाओ वालों ने उस अभियान के तहत स्वीजरलैंड में अकूत
धन जमा कर लिया। तोपबाजों ने ऐसे गोले दागे कि गरीबी हटाओ का नारा आसमान तक चला गया। वहीं उसकी अंत्येष्टि हो गई क्योंकि विदेशी बैंक काफी तगड़ा हो गया था। बाबा रामदेव ने पिछले दो साल में ‘‘भ्रष्टाचार भगाना है ,अरबांे खरबों पाना है’’ का नारा देकर सारे देश और सारे विदेश से जो दौलत बटोरी वो स्वीजरलैंड के बैंकमैंनों को नीचा दिखाने के लिए काफी है। मुझे उम्मीद थी कि उनका नाम भ्रष्टाचार विरोधी कमेटी में नहीं आएगा और नहीं आया। सरकार चलानेवाले इतने मूर्ख थोड़े ही होते हैं। बाबा सरकार और सरकार विराधियों की आखों में बहुत खटक चूके थे। आखिर उनका भी देश है ,उनका भी संविधान है। उनका भी देश की दौलत पर उतना ही हक है। ज़ोर लगाओ मिलकर खाओ की पालिसी सफल पालिसी है। पर मैं हैरान था कि बाबा अब तक चुप क्यों हैं।
आखिर बाबा बोले। बिल्कुल सच्ची बात बोले। ‘‘पिता और पुत्र को एक साथ रखना यानी मां बेटे की,गाय और बछड़े की परंपरा को पुनजीर्वित करना।’’ अन्ना ने बाबा को छुद्र मानसिकतावाला कह दिया। बस मैं यही चाहता था। सत्ता अपने लक्ष्य में सफल हो गई। अन्ना ने सत्ता का रस पी लिया। भ्रष्टाचार पर बिल अब आए न आए भ्रष्टाचार उन्मूलन के बहाने जिन लोगों का पेट भर गया था ,अब भ्रष्टाचार विरोधी विधेयक का संयुक्त प्रयास उसमें फ्रुटजूस का रंग और फ्लेवर लाएगा। बाबा योग चलाएंगे, दवा बनाएंगे और अन्ना हजारे के प्रणव के साथ होंगे बारे न्यारे। मैं कबीर के सबद के जरिये बाबा और अन्ना से पूछना चाहता हूं कि दौ मैं मूवा कौन ? उस परले सत्ताधारी पक्ष में सिंह साहब अगाड़ी है। प्रणव खिलाड़ी हैं। हम सब अनाड़ी हैं।
अस्तु, इतना सब जो मेरे हिसाब से घट गया तो अब मेरा ब्लड-प्रेशर नार्मल है। आप भी नार्मल रहें। ऐसे मनोरंजन तो होते रहेंगे। पुल्लिंग में जय हिंद,जय भारत। स्त्रीलिंग में भारत माता की जय। जननी जन्मभूमिः च स्वर्गदपि गरीयसे । नपुंसक लिंग में कहें तो मेरा देश महान। राष्ट्रदेवो भव!! सब मजे़ेदार है न !!!
व्यंग्य , 11.04

Wednesday, March 24, 2010

ध्यान धुरंधर

केवल ध्यान ही ध्यान नहीं है
उनके ध्यान में सब कुछ है
सब जन हैं उनके ध्यान में
वे सब जो ध्यान नहीं करते
और करते हैं तो कितना खराब करते हैं

उनके ध्यान में सब कुछ है
इसका भी ध्यान है उन्हें कि
कौन किससे मिलता है
क्या करता है
क्या नहीं करता
कहां जाता है
कहां नहीं जाता

वे जब ध्यान के किसी बड़े आयोजन से लौटते हैं
तो दुखी होते हैं
बताते हैं यही सब कि
कौन कौन आया था
कौन नही आया
किसने क्या कहा
किसने क्या नहीं कहा
कौन कितना खा रहा था
कौन कहां खा रहा था
कौन अपने महत्व को समझ रहा था
कौन नहीं समझ रहा था
उनके ध्यान में सब कुछ रहता है

शहर के वे सबसे बड़े ध्यानी हैं
उनकी शिकायत में ध्यान है
बस अपने ही ध्यान का नही है उन्हें ध्यान
सबका ध्यान है
बहुत बहुत शिकायत है उनके ध्यान में ।
07022010

Monday, March 1, 2010

होली हंसी ठिठोली है ,

होली हंसी ठिठोली है ,
बुरा न मानो होली है


बुरा न मानो होली है ।
बुरा न मानो होली है ।।

दीवानों की टोली है
मुंह में भांग की गोली है
गरिआती हर बोली है
लेकिन बिल्कुल भोली है
यह सबकी मुंहबोली है
हर भड़ास हमजोली है
रंग ने मस्ती घोली है
हरी भरी हर डोली है
बौराई अमरोली है
बुरा न मानो होली है

काम नेक ये कर बैठी
नाम एक से कर बैठी
सबकी सब पहचान मिटी
आनोबानोशान मिटी
लेकर सभी गुलाल चले
सब मिट्टी के लाल चले
किसने कितने गाल मले ?
सबमें यही सवाल चले
होली हंसी ठिठौली है
बुरा न मानो होली है

हर पल कितना धांसू है
आंख में एक न आंसू है
कितने कितने रंग खिले
जब अंगों से अंग मिले
पृष्ठ खुले हैं खातों के
गलबंहियों के नातों के
जोड़ तोड़ न बाक़ी है
जमा एक बेबाकी है
चाहे खाली झोली है
बुरा न मानो होली है

होली है .....दिन/दिनांक: 01 मार्च 2010

Sunday, October 4, 2009

और कितना चाहिए

मुंहलगे छात्रों में से किसी ने हड़ताली प्रोफेसर से पूछा: ‘‘ आप लोग किस बात को लेकर हड़ताल पर हो ?’’
‘‘ वेतनमान को लेकर !’’ प्रोफेसर ने उसे सिरपर बिठाते हुए कहा।
‘‘ पचास हज़ार लेकर नहीं पढ़ा रहे हो और वेतन के लिए हड़ताल पर जा रहे हो !’’ मुंहलगे छात्र ने जैसे प्रोफेसर के मुंह पर स्पिट कर दी। प्रोफेसर ने मुंह पोंछते हुए कहा:‘‘ तुम लोगों को फुर्सत कहां है कक्षाओं में आने की ? खाली क्लासरूमों में लड़कियों को लेकर पता नहीं क्या करते हो ! परीक्षाओं में चिट लेकर आते हो। कभी कलासरूम में भी आओ तो हम पढ़ाएं भी... और तुमसे किसने कह दिया कि हम लोगों को पचास हज़ार मिलता है ?’’
‘‘ मुख्यमंत्री तो कह रहा है।’’छात्र ने कहा।
‘‘ मुख्यमुत्री को कुछ पता नहीं...आईएएस कान भर रहे हैं ,वह उल्टी कर रहा है। तुम लोग सरकारी छात्रसंगठन के कार्यकर्ता हो, तुम उसी की जुगाली कर रहे हो।’’ प्रोफेसर आक्रोशित होकर बोले।
छात्र ने हंसकर कहा ‘‘ अच्छा, चलो मुख्यमंत्री और आईएएस झूठ बोल रहे हैं ...आप ही सच सच बता दो , कितना मिलता है ?’’
‘‘ तीस हज़ार मिलता है और कितना मिलता है।’’ प्रोफेसर ने असंतुष्टि से कहा।
‘‘ बहुत ज्यादा मिलता है...और कितना चाहिए ? दस पन्द्रह हज़ार में लोगों के घर चल रहे हैं।’’ लड़के ने हंसी का पत्थर उछालते हुए कहा। प्रोफेसर जानता है कि यह लड़का छात्रनेता है ,छात्र नहीं हैं , वह राजनीति की केडरशिप में हंै। इसलिए प्रोफेसर ने झिड़कते हुए कहा ‘‘ तुम तो कहोगे ही...तुम्हें ऐसा कहने के लिए कहा जा रहा है। तुम लोग तो हाथ , पांव और मुंह हो मुख्यमंत्री के....और भी क्या हो ,मैं बोलना नहीं चाहता...’’
‘‘किस मुंह से बोलोगे...सब्बरवाल का हाल देख चुके हो...’’ लड़का ज़ोरज़ोर से हंसने लगा। छात्रों की राजनीति करनेवाला प्रोफेसर मुस्कुरा दिया।

‘‘और कितना चाहिए’’ यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है ? किसका घर कितने में चल रहा है ? यह भी एक विचारणीय मुद्दा है। किस व्यक्ति को घर की जरूरतों के हिसाब से कितना चाहिए और उसे मिल कितना रहा है, इस पर भी विचार होना चाहिए। विचार तो इस पर भी होना चाहिए कि जिनका वेतनमान कम है ,उनको उससे तिगुना चैगुना कहां से मिल रहा है ? किस किस विभाग के अधिकारी और कर्मचारियों का बैंक बैलेंस कितना है और उनकी बढ़ती हुई संपत्ति के सा्रेत , वेतन के अलावे और कहां कहां से हैं ? मगर विचार की जरूरत किसे है ? श्रीकांत वर्मा की एक कविता है ‘‘मगध में विचार की कमी हैं।’’ यहां मगध का मतलब हमारी समूची भ्रष्ट व्यवस्था है।
बात कविता की चले और कबीर की याद न आए ,ऐसा कम ही होता है। कितना चाहिए का उत्तर कबीर के पास मिल सकता है। कबीर ने कहा है-
‘‘ सांई इतना दीजिए, जामै कुटुम्ब समाए।
मैं भी भूखा न रहूं ,साधू न भूखा जाए।।’’
ज़रा सोचिए ,कबीर का घर कितने में चलता होगा ? कबीर जिस कुटुम्ब की बात करते हैं उसमें कितने लोग होंगे ? आने-जाने-खानेेवाले और कुटुम्ब का बजट बिगाड़नेवाले इन साधुओं की मासिक संख्या कितनी होगी ? फक्कड़ कबीर का वेतनमान साईं नामक नियोक्ता या अन्नदाता ने कितना रखा होगा ? कबीर को ‘कितना चाहिए’,कबीर ने अपना यह बजट नहीं बताया। अनपढ़ समझे गए या प्रचारित किए गए मस्तमौला और अक्खड़ कबीर ने कभी बजट बनाया होगा ,इसकी कल्पना मुश्किल है। मगर यह जो प्रस्ताव कबीर ने रख दिया है, नियोक्ता के सामने , वह विचारोत्तेजक है। हल्की फुल्की और उड़ा देनेवाली बात रहस्यमय कबीर ने शायद ही कभी की हो। फलस्वरूप कबीर के साईं को कबीर का बजट बनाना पड़ा। अगर साई ईमानदार हो और हितग्राहिओं की जरूरतों को समझता हुआ खुद बिना पक्षपात के उनका बजट बनाना शुरू कर दे तो यह नौबत नहीं आती ; शायद। जनश्रुतियों में यह बात नहीं आई हैं कि कबीर को कभी हड़ताल पर बैठना पड़ा हो या वेतनमान को लेकर साई से कभी उसकी हुज्जत हुई हो। पढ़ने और सुनने में तो यही आता है कि साई ने कबीर को इतना दिया कि कबीर ही लज्जित हो गए। एक गवाही (साक्षी) में कबीर कहते हैं -
देनेवाला और है , देता है दिन रैन ।
लोग भरम मौं पै करैं , तातै नीचे नैन।।
मातहतों की आंख नीची रहे इसके लिए दिन-रात देते रहना चाहिए ,कबीर अपने देनेवाले के उदाहरण से यही कहना चाहते हैं।

यहां आकर कबीर के इस ‘‘देनेवाला और’’ पर हरिशंकर परसाई को पढ़नेवाले विद्वानों की तरफ़ मेरा ध्यान खिंच गया है। व्याख्या की बात हो तो परसाई की याद आना स्वाभाविक है। दरअसल प्रजातंत्र में यह ‘देनेवाला और ’ ही है जो केन्द्र में है और सारी सत्ताओं को संभाले हुए है। प्रत्यक्ष संाईंयों के पीछे खड़ा हुआ यह ‘समानान्तर सांईं’ है। कबीर के मामले में वह कोई और था जो राम के समान्तर था। वह देता था और कबीर का कुटुम्ब भी समाता था और साधू भी छक कर जाता था।
प्रजातंत्र में यह संाई चंदा भी देता है ,उपहार भी देता है ,स्पांसरिंग भी करता है ,लिफाफे या सूटकेस , जहां जैसा जरूरी हो ,देता रहता है। इन सांइयों के भरोसे ही वेतनमान की चिन्ता सबार्डिनेट और अधिकारियों को नहीं रहती। टैन परसेंट से लेकर चालीस परसेंट तक वह दे देता है। विभागीय काम और टारगेट के आधार पर यह परसेंट तय होता है। जिला ,संभाग, प्रदेश स्तर तक नेटवर्क फैला हुआ है। वेतनमान इस नेटवर्कीय-आवक की तुलना में दो कौड़ी का है। तुलना तो दिखावे के लिए तब होती है ,जब दस साल में एक बार नम्बर एक में दिए जानेवाले वेतनमान की घोषणाएं की जाती है। जनता के लिए शासन करनेवाले नुमाइंदों के खर्चों की कटौतियां नहीं होती । केवल वेतन पर निर्भर रहने वाले लोगों के भत्तों पर रोक लगाकर देनेवाले के महत्व को स्थापित किया जाता है।
यही चल रहा है। इसी के चलते पर्दे के पीछे के स्रोतों से हिस्सा पानेवाले और वेतनमान को सत्यानारायण के प्रसाद की पुड़िया मानकर चलनेवाले समर्थ लोग पुछवा रहे हैं-‘और कितना चाहिए ?’ हर दस साल में तुम्हारे ही लोग वेतनमान को पुनरीक्षित कर रहे हैं। उसी जाति और प्रवृत्तियों के लोग वेतनमान पुनरीक्षण आयोग में है ,जो इधर रोक रहे हैं। नियमतः वे सिफाारिश दे रहे हैं ,वित्तीय बहानों से तुम रोक लगा रहे हो। यह ढोंग,यह तमाशा,यह नौटंकी किसलिए ? जनता के मनोरंजन के लिए ? हितग्राही हकदार तुम्हारे इस मनोरंजक खेल में फुटबाल बने हुए हैं। विधायिका चुप है। कार्यपालिकाएं क्रीड़ा कर रही है। न्यायपालिका कहती है कि जब हमारे पास मामला आएगा तब देखेंगे। सारा लफड़ा इसी देखने और दिखाने का है। चुनाव पास में हैं।

Thursday, September 24, 2009

पिंजरे पंखेदार

तरह तरह के पक्षियों के जू में
हरे ,पीले ,सफेद ,लाल तोते
संग बिरंगी चिड़िया
और सब उड़ रहे थे बार बार
अपने अपने पिंजरों की हदों में
सबके पास थे अपनी जरूरत भर पंखे
‘‘ कौन हैं ये जू बनानेवाले ?‘‘ बच्चों ने पूछा
मैं इस सवाल को टाल गया
मैंने कहा:‘‘ वो मोर देखो
जंगल में मोर नाचता है तो कौन देखता है ?
और मैंने देखा है कि नहीं देखा
मैंने मोर केो कभी नाचते पिंजरे में ।

बच्चों ने फिर पूछा:‘‘ हम यहीं क्यों नहीं रहते ?‘‘
रोज आएंगे जू में ,कितना अच्छा लगेगा !‘‘
मुझे अपनी नौकरी याद आयी
बच्चों की पढ़ाई और भविष्य
सहकर्मियों की ईष्र्या और द्वैष
राजनीतिक दबाव और मंहगाई
बजट के पिंजरे फड़फड़ाती आवश्यकताएं,
अपने हांफते हुए अस्थमिक फेफड़ो की दवाई
शिक्षा ,उच्च शिक्षा और तकनीकी शिक्षा के बदलते तेवर
मैं अब किन्हें देखूं ....
बच्चों के सपने या पिंजरों में बंद परिंदे ?
या उन लोगों को
जिनके पिंजरे हैं पंखेदार

जू में बच्चों का देखता हूं तो सोचता हूं
क्या आनेवाली पीढ़ी के पास
पिंजरों को उड़ा सकनेवाले पंखे होंगे
या कभी ऐसी भी दुनिया होगी जहां
पिंरे नहीं होंगे !
10.02.09

Friday, July 31, 2009

आग रहती है घर में


आग रहती है घर में
किसी एक कोने में जलती
सिगड़ी या चूल्हे मंे नहीं
रूप बदलती रहती है वह दिन भर
दिन निकलते ही
खुलती हुई खिड़कियों और
दरवाजों में
चिड़ियों की चहचहाटों से
क्यारियों में बहते पानी में
आंगन बुहारती और पर्दे झटकारती
घर के एक एक कोने से कचरे निकालती
आग जागते हुए अहसास की तरह
चाय की प्यालियों में
भाप सी उभरती है

आग रहती है घर में
घर जो सड़क की भागमभाग ,
शोरगुल ,धूलधक्कड़
बेचैन दिल की तरह धड़धड़ाती हुई
कांपती जमीन से कुछ दूर
औघड़ सा बसा है
सैकड़ों आंख में
करकरी बनकर चुभा है

घर क्या है
चार कमरे हैं
ठीक दिल की तरह
रसोई ,पूजाघर ,बैठक ,
और शयनकक्ष
बिना आग के जो
बिल्कुल महत्वहीन
घर की बाई तरफ
बना रखा है
बगीचा एक छोटा सा
आम ,अमरूद ,आंवला ,मीठी नीम
कुछ मौसमी बेलें
सेम ,तुरई ,बरबटी ,
कुछ मौसमी भटे , भुट्टे , चने ,
फल्लियां ,मैथी ,पालक ,
कुछ सदाबहार मिर्चें ,पपीते ,
किनारे किनारे आंगन में गुलाब ,मोंगरे ,
रजनीगंधा ,हरसिंगार ,अमलतास ,
उन सब में रहती है आग
जैसे वे सब उसमें रहते ह
आग रहती है घर में
और खण्ड खण्ड होकर
बंट जाती है हम सब में
उसमें , इसमें ,
आने जाने वाले जाने अनजाने
जाने अनजानों में
दूधवाले और अखबारवाले में
गैस के सिलिण्डर के लिए भी
झगड़ती है आग
हंसते गुनगुनाते हुए फिर
पतीली में पक जाने के लिए
माचिस को तीली से
रगड़ती है आग

आग जब मौज में आती है
तो चुहल करती है
और शांत होते ही आस्था में
बदल जाती है
आग तर्जन ,वर्जन ,और गर्जन तक
सैकड़ों जिम्मेदारियों में उभरती है
सिर पै चढ़ती है ,
गले में उतरती है
आग जब रूठती है तो
बैठ जाती है एक तरफ
हाथ मलने और
पैर रगड़ने की कवायदें
उसे करती हैं गुलाबी

आग मगर
खरीदी और बेची नहीं जा सकती
आग ऊगती है अपने आप
जैसे ऊगती है
जंगल में तुलसी
और गमले में पलती है
क्योंकि
आग रहती है घर में

हां
आग रहती है घर में

300709/010809
कुमार कौतुहल

Wednesday, July 22, 2009

संधियों के एवरेस्ट में हिलेरी


अमेरिका से हिलेरी आई हैं। वे परमाणुओं से बने एवरेस्ट को फतह करने आई हैं। उनके मित्र एवं पोषित राष्ट्र पाकिस्तान ने जिस ताज होटल पर सीरियल धमाकों की साजिश रची थी , वहीं वे ठहरी हैं। वहां ठहरने की ख्वाहिश उन्हीं की थी। शायद वे देखना चाहती है कि इस मरदूद ताज में ऐसी क्या बात है कि आतंकवाद का उस पर जरा ळाी असर नहीं हुआ। ट्विन-टावर की तरह वह ध्वस्त क्यों नहीं हुआ ? उलटे भारत के सैनय रक्षण का लोहा विश्वशक्तियों की छाती में उतर गया । अमेरिका की आण्विक और रक्षण प्रौद्योगिकी से अपने सुरक्षा कवच रचनेवाला पाकिस्तान भारत के कड़े तेवर से घबरा गया । जो पाकिस्तान ट्विन-टावर गिराने के बाद नहीं घबराया क्योंकि बुश अपने ही थे , वह भारत के ताज का बालबांका न करने के बाद घबराया।
बात में ट्विस्ट है। ट्विस्ट यह है कि बुश का मित्र लादेन जिन्दा भी है और मर भी गया है। मगर बुष सत्ता ये गण् । फिर पीछे पीछे मुशर्रफ़ भी पूरी तरह सुरक्षित सत्ता से बाहर गए। अब अमेरिका में बराक आमबामा आ गए है जो अमेरिका को भावुकता में मुस्लिम देश कह दिया करते है। मगर भारत स्थिर बना हुआ है। वही सोणी-देश ,वही मनमोहन-राष्ट्र।
पाकिस्तान और अमेरिका बहुत सोच-समझकर कदम रख रहे है। ताज होटल के मुजरिम बंदी कसाब का हिलेरी के भारत आने पर सच का स्वीकार करना ,उसी सोचे समझे कदम का एक सिरा है। पिछले राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की पत्नी और अमेरिका की वत्र्तमान विदेशमंत्री हिलेरी क्लिंटन एक ’बिल’ लेकर आई हैं। वैसा बिल नहीं जो ताज को उन्हें देना है। ताज में तो वे राजकीय मेहमान हैं। वे लेकर आई हैं भारत द्वारा परमाणु परिसीमन की शर्त पर परमाणु सहयोग देने का बिल। इस बिल के अंदर पाकिस्तान की सुरक्षा का कवच और अमेरिका का भविष्य सुरखित है। इस बिल का नाम ‘परमाणु -संधि’ है।
भारत एक संधि-प्रधान देश है। भारत और ईस्ट इंडिया कंपनी की संधि इतिहास प्रसिद्ध है। वह हमारी परतंत्रता का शिलालेख है। स्वतंत्र होने पर हमने ‘पंचशील-संधि‘ की और हिन्दी चीनी भाई भाई के बैनर तले भारत का सबसे पहला और बड़ा आक्रमण झेला। हमारा चीनी भाई अमेरिका और पाकिस्तान का दोस्त है। इसलिए हम सुरक्षा की दृष्टि से रूस की तरफ बढ़े। इसके नतीजे में मास्को और तासकंद की संधियों हमने कीं। दुर्योग से हमने इसी समय नेहरू और शास्त्री को खोया। फिर शिमला संधि हुई। संधि को ही समझौता कहते हैं। इसके बाद हमने इंदिरा को खोया और पाकिस्तान ने जुल्फीकार अली को। लंका और भारत के बीच की संधि हुई और उसके बाद राजीव को हमने खो दिया। फिर आया पाक हिंद सीमापार आवागमन का लाहौर-समझौता । उसी के पीछे पीछे चला आया कारगिल सीमा युद्ध। आपदाएं क्या हमेशा संधियों के पीछे से होकर आती हैं ?
अब हमने परमाणु संधि की है। संधि का एक अर्थ दरार भी होता है। जब जब संधियां होती हैं ,किसी दरार की शुरूआत होती है। दबा हुआ षड़यंत्र उन्हीं दरारों में से फूटकर इस तरफ रिस आता है। परमाणु संधि या करार के अंतिम नतीज़ों का हम बेकरारी से इंतज़ार कर रहे हैं। एक हिलेरी ने त्वेनसेंग के साथ हमारे एवरेस्ट पर चढत्रकर कीर्तिमान बनाया था। यह हिलेरी ओबामा के साथ परमाणुसंधि के एवरेस्ट पर चढत्रकर उसका संधिविग्रह कर कहीं ‘ईव‘(शाम) को भारत में ‘रेस्ट‘(ठहराने,टिकाने, आराम कराने )का इंतजाम तो नहीं कर रही ? यह मेरा ख्याल है और भारतीय संविधान के तहत मैं अपने ख्याल के लिए स्वतं़ हूं। मैं क्या करूं हर संधि मंझे हमेशा उस बेवफ़ा मेहबूबा की तरह लगती है जो हमेशा काम निकलने कगे बाद खूबसूरत वायदों को तोड़ दिया करती है। मुहब्बत के ऐव (ईव)-रेस्ट से गिरने वाले किसी मासूम और मायूस कवि ने ही यह शेर लिखा होगा -‘ हुई शाम उनका ख्याल आ गया ।’ 220709