तरह तरह के पक्षियों के जू में
हरे ,पीले ,सफेद ,लाल तोते
संग बिरंगी चिड़िया
और सब उड़ रहे थे बार बार
अपने अपने पिंजरों की हदों में
सबके पास थे अपनी जरूरत भर पंखे
‘‘ कौन हैं ये जू बनानेवाले ?‘‘ बच्चों ने पूछा
मैं इस सवाल को टाल गया
मैंने कहा:‘‘ वो मोर देखो
जंगल में मोर नाचता है तो कौन देखता है ?
और मैंने देखा है कि नहीं देखा
मैंने मोर केो कभी नाचते पिंजरे में ।
बच्चों ने फिर पूछा:‘‘ हम यहीं क्यों नहीं रहते ?‘‘
रोज आएंगे जू में ,कितना अच्छा लगेगा !‘‘
मुझे अपनी नौकरी याद आयी
बच्चों की पढ़ाई और भविष्य
सहकर्मियों की ईष्र्या और द्वैष
राजनीतिक दबाव और मंहगाई
बजट के पिंजरे फड़फड़ाती आवश्यकताएं,
अपने हांफते हुए अस्थमिक फेफड़ो की दवाई
शिक्षा ,उच्च शिक्षा और तकनीकी शिक्षा के बदलते तेवर
मैं अब किन्हें देखूं ....
बच्चों के सपने या पिंजरों में बंद परिंदे ?
या उन लोगों को
जिनके पिंजरे हैं पंखेदार
जू में बच्चों का देखता हूं तो सोचता हूं
क्या आनेवाली पीढ़ी के पास
पिंजरों को उड़ा सकनेवाले पंखे होंगे
या कभी ऐसी भी दुनिया होगी जहां
पिंरे नहीं होंगे !
10.02.09
Thursday, September 24, 2009
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