Friday, July 31, 2009

आग रहती है घर में


आग रहती है घर में
किसी एक कोने में जलती
सिगड़ी या चूल्हे मंे नहीं
रूप बदलती रहती है वह दिन भर
दिन निकलते ही
खुलती हुई खिड़कियों और
दरवाजों में
चिड़ियों की चहचहाटों से
क्यारियों में बहते पानी में
आंगन बुहारती और पर्दे झटकारती
घर के एक एक कोने से कचरे निकालती
आग जागते हुए अहसास की तरह
चाय की प्यालियों में
भाप सी उभरती है

आग रहती है घर में
घर जो सड़क की भागमभाग ,
शोरगुल ,धूलधक्कड़
बेचैन दिल की तरह धड़धड़ाती हुई
कांपती जमीन से कुछ दूर
औघड़ सा बसा है
सैकड़ों आंख में
करकरी बनकर चुभा है

घर क्या है
चार कमरे हैं
ठीक दिल की तरह
रसोई ,पूजाघर ,बैठक ,
और शयनकक्ष
बिना आग के जो
बिल्कुल महत्वहीन
घर की बाई तरफ
बना रखा है
बगीचा एक छोटा सा
आम ,अमरूद ,आंवला ,मीठी नीम
कुछ मौसमी बेलें
सेम ,तुरई ,बरबटी ,
कुछ मौसमी भटे , भुट्टे , चने ,
फल्लियां ,मैथी ,पालक ,
कुछ सदाबहार मिर्चें ,पपीते ,
किनारे किनारे आंगन में गुलाब ,मोंगरे ,
रजनीगंधा ,हरसिंगार ,अमलतास ,
उन सब में रहती है आग
जैसे वे सब उसमें रहते ह
आग रहती है घर में
और खण्ड खण्ड होकर
बंट जाती है हम सब में
उसमें , इसमें ,
आने जाने वाले जाने अनजाने
जाने अनजानों में
दूधवाले और अखबारवाले में
गैस के सिलिण्डर के लिए भी
झगड़ती है आग
हंसते गुनगुनाते हुए फिर
पतीली में पक जाने के लिए
माचिस को तीली से
रगड़ती है आग

आग जब मौज में आती है
तो चुहल करती है
और शांत होते ही आस्था में
बदल जाती है
आग तर्जन ,वर्जन ,और गर्जन तक
सैकड़ों जिम्मेदारियों में उभरती है
सिर पै चढ़ती है ,
गले में उतरती है
आग जब रूठती है तो
बैठ जाती है एक तरफ
हाथ मलने और
पैर रगड़ने की कवायदें
उसे करती हैं गुलाबी

आग मगर
खरीदी और बेची नहीं जा सकती
आग ऊगती है अपने आप
जैसे ऊगती है
जंगल में तुलसी
और गमले में पलती है
क्योंकि
आग रहती है घर में

हां
आग रहती है घर में

300709/010809
कुमार कौतुहल

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