Tuesday, July 21, 2009

अंधेरे के जुगनूं


पचासों सालों से दीवाली
नहीं मनी थी उनके घरों में
रहता था शोक वहां
अपने बूढ़े परिवार के साथ
दीवाली के खास दिन
संस्कार उन्हें अपनी चादरें देकर
पैताने सोता था

मां कहती थी और बताते थे भाई भी
कि मैं उस परिवार का
पचासों साल बाद जलनेवाला दिया हूं
पचासों साल बाद होनेवाली पूजप हूं
पचासों साल बाद फूटनेवाला फटाखा हूं
ढेरों आंधियां चलीं ,गर्मी तपी
बारिसों में भीगे कितने साल
कितनी फूंकों में मैं आजमाया गया
स्नेह सब तरफ सूखता रहा
मैं अपने अंदर के गुबार के भरोसे
गैस के चूल्हों की तरह जलते रहा
मगर एक दिन संयोग से
दीवाली की पूजा के बाद
मेरे ज्येष्ठ अग्रज बुझ गए
एक द्वैष जो प्रतीक्षित था मुझे बुझाने
वह रोया भी और खुश भी हुआ
बोला ‘‘ अब दिये नहीं जलेंगे फिर पहले की तरह ‘‘
मैंने मुस्कुराकर कहा ‘‘ मैं अभी जिंदा हूं और
मेरे जीते जी नहीं मर सकती दीपावली ‘‘
द्वैष ,ईष्र्या ,दंभ और अहंकार संगठित होकर भी
नहीं बुझा सकते उत्सव के पंक्तिबद्ध दिए
वे मेरे अंदर हैं
अंधेरे के ढेर में जुगनुओं की तरह

डा .रा.रामकुमार

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