Sunday, October 4, 2009

और कितना चाहिए

मुंहलगे छात्रों में से किसी ने हड़ताली प्रोफेसर से पूछा: ‘‘ आप लोग किस बात को लेकर हड़ताल पर हो ?’’
‘‘ वेतनमान को लेकर !’’ प्रोफेसर ने उसे सिरपर बिठाते हुए कहा।
‘‘ पचास हज़ार लेकर नहीं पढ़ा रहे हो और वेतन के लिए हड़ताल पर जा रहे हो !’’ मुंहलगे छात्र ने जैसे प्रोफेसर के मुंह पर स्पिट कर दी। प्रोफेसर ने मुंह पोंछते हुए कहा:‘‘ तुम लोगों को फुर्सत कहां है कक्षाओं में आने की ? खाली क्लासरूमों में लड़कियों को लेकर पता नहीं क्या करते हो ! परीक्षाओं में चिट लेकर आते हो। कभी कलासरूम में भी आओ तो हम पढ़ाएं भी... और तुमसे किसने कह दिया कि हम लोगों को पचास हज़ार मिलता है ?’’
‘‘ मुख्यमंत्री तो कह रहा है।’’छात्र ने कहा।
‘‘ मुख्यमुत्री को कुछ पता नहीं...आईएएस कान भर रहे हैं ,वह उल्टी कर रहा है। तुम लोग सरकारी छात्रसंगठन के कार्यकर्ता हो, तुम उसी की जुगाली कर रहे हो।’’ प्रोफेसर आक्रोशित होकर बोले।
छात्र ने हंसकर कहा ‘‘ अच्छा, चलो मुख्यमंत्री और आईएएस झूठ बोल रहे हैं ...आप ही सच सच बता दो , कितना मिलता है ?’’
‘‘ तीस हज़ार मिलता है और कितना मिलता है।’’ प्रोफेसर ने असंतुष्टि से कहा।
‘‘ बहुत ज्यादा मिलता है...और कितना चाहिए ? दस पन्द्रह हज़ार में लोगों के घर चल रहे हैं।’’ लड़के ने हंसी का पत्थर उछालते हुए कहा। प्रोफेसर जानता है कि यह लड़का छात्रनेता है ,छात्र नहीं हैं , वह राजनीति की केडरशिप में हंै। इसलिए प्रोफेसर ने झिड़कते हुए कहा ‘‘ तुम तो कहोगे ही...तुम्हें ऐसा कहने के लिए कहा जा रहा है। तुम लोग तो हाथ , पांव और मुंह हो मुख्यमंत्री के....और भी क्या हो ,मैं बोलना नहीं चाहता...’’
‘‘किस मुंह से बोलोगे...सब्बरवाल का हाल देख चुके हो...’’ लड़का ज़ोरज़ोर से हंसने लगा। छात्रों की राजनीति करनेवाला प्रोफेसर मुस्कुरा दिया।

‘‘और कितना चाहिए’’ यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है ? किसका घर कितने में चल रहा है ? यह भी एक विचारणीय मुद्दा है। किस व्यक्ति को घर की जरूरतों के हिसाब से कितना चाहिए और उसे मिल कितना रहा है, इस पर भी विचार होना चाहिए। विचार तो इस पर भी होना चाहिए कि जिनका वेतनमान कम है ,उनको उससे तिगुना चैगुना कहां से मिल रहा है ? किस किस विभाग के अधिकारी और कर्मचारियों का बैंक बैलेंस कितना है और उनकी बढ़ती हुई संपत्ति के सा्रेत , वेतन के अलावे और कहां कहां से हैं ? मगर विचार की जरूरत किसे है ? श्रीकांत वर्मा की एक कविता है ‘‘मगध में विचार की कमी हैं।’’ यहां मगध का मतलब हमारी समूची भ्रष्ट व्यवस्था है।
बात कविता की चले और कबीर की याद न आए ,ऐसा कम ही होता है। कितना चाहिए का उत्तर कबीर के पास मिल सकता है। कबीर ने कहा है-
‘‘ सांई इतना दीजिए, जामै कुटुम्ब समाए।
मैं भी भूखा न रहूं ,साधू न भूखा जाए।।’’
ज़रा सोचिए ,कबीर का घर कितने में चलता होगा ? कबीर जिस कुटुम्ब की बात करते हैं उसमें कितने लोग होंगे ? आने-जाने-खानेेवाले और कुटुम्ब का बजट बिगाड़नेवाले इन साधुओं की मासिक संख्या कितनी होगी ? फक्कड़ कबीर का वेतनमान साईं नामक नियोक्ता या अन्नदाता ने कितना रखा होगा ? कबीर को ‘कितना चाहिए’,कबीर ने अपना यह बजट नहीं बताया। अनपढ़ समझे गए या प्रचारित किए गए मस्तमौला और अक्खड़ कबीर ने कभी बजट बनाया होगा ,इसकी कल्पना मुश्किल है। मगर यह जो प्रस्ताव कबीर ने रख दिया है, नियोक्ता के सामने , वह विचारोत्तेजक है। हल्की फुल्की और उड़ा देनेवाली बात रहस्यमय कबीर ने शायद ही कभी की हो। फलस्वरूप कबीर के साईं को कबीर का बजट बनाना पड़ा। अगर साई ईमानदार हो और हितग्राहिओं की जरूरतों को समझता हुआ खुद बिना पक्षपात के उनका बजट बनाना शुरू कर दे तो यह नौबत नहीं आती ; शायद। जनश्रुतियों में यह बात नहीं आई हैं कि कबीर को कभी हड़ताल पर बैठना पड़ा हो या वेतनमान को लेकर साई से कभी उसकी हुज्जत हुई हो। पढ़ने और सुनने में तो यही आता है कि साई ने कबीर को इतना दिया कि कबीर ही लज्जित हो गए। एक गवाही (साक्षी) में कबीर कहते हैं -
देनेवाला और है , देता है दिन रैन ।
लोग भरम मौं पै करैं , तातै नीचे नैन।।
मातहतों की आंख नीची रहे इसके लिए दिन-रात देते रहना चाहिए ,कबीर अपने देनेवाले के उदाहरण से यही कहना चाहते हैं।

यहां आकर कबीर के इस ‘‘देनेवाला और’’ पर हरिशंकर परसाई को पढ़नेवाले विद्वानों की तरफ़ मेरा ध्यान खिंच गया है। व्याख्या की बात हो तो परसाई की याद आना स्वाभाविक है। दरअसल प्रजातंत्र में यह ‘देनेवाला और ’ ही है जो केन्द्र में है और सारी सत्ताओं को संभाले हुए है। प्रत्यक्ष संाईंयों के पीछे खड़ा हुआ यह ‘समानान्तर सांईं’ है। कबीर के मामले में वह कोई और था जो राम के समान्तर था। वह देता था और कबीर का कुटुम्ब भी समाता था और साधू भी छक कर जाता था।
प्रजातंत्र में यह संाई चंदा भी देता है ,उपहार भी देता है ,स्पांसरिंग भी करता है ,लिफाफे या सूटकेस , जहां जैसा जरूरी हो ,देता रहता है। इन सांइयों के भरोसे ही वेतनमान की चिन्ता सबार्डिनेट और अधिकारियों को नहीं रहती। टैन परसेंट से लेकर चालीस परसेंट तक वह दे देता है। विभागीय काम और टारगेट के आधार पर यह परसेंट तय होता है। जिला ,संभाग, प्रदेश स्तर तक नेटवर्क फैला हुआ है। वेतनमान इस नेटवर्कीय-आवक की तुलना में दो कौड़ी का है। तुलना तो दिखावे के लिए तब होती है ,जब दस साल में एक बार नम्बर एक में दिए जानेवाले वेतनमान की घोषणाएं की जाती है। जनता के लिए शासन करनेवाले नुमाइंदों के खर्चों की कटौतियां नहीं होती । केवल वेतन पर निर्भर रहने वाले लोगों के भत्तों पर रोक लगाकर देनेवाले के महत्व को स्थापित किया जाता है।
यही चल रहा है। इसी के चलते पर्दे के पीछे के स्रोतों से हिस्सा पानेवाले और वेतनमान को सत्यानारायण के प्रसाद की पुड़िया मानकर चलनेवाले समर्थ लोग पुछवा रहे हैं-‘और कितना चाहिए ?’ हर दस साल में तुम्हारे ही लोग वेतनमान को पुनरीक्षित कर रहे हैं। उसी जाति और प्रवृत्तियों के लोग वेतनमान पुनरीक्षण आयोग में है ,जो इधर रोक रहे हैं। नियमतः वे सिफाारिश दे रहे हैं ,वित्तीय बहानों से तुम रोक लगा रहे हो। यह ढोंग,यह तमाशा,यह नौटंकी किसलिए ? जनता के मनोरंजन के लिए ? हितग्राही हकदार तुम्हारे इस मनोरंजक खेल में फुटबाल बने हुए हैं। विधायिका चुप है। कार्यपालिकाएं क्रीड़ा कर रही है। न्यायपालिका कहती है कि जब हमारे पास मामला आएगा तब देखेंगे। सारा लफड़ा इसी देखने और दिखाने का है। चुनाव पास में हैं।