Wednesday, May 13, 2009

चिंता किस बात की ?

हमारा देश परोपकारियों का देश है. ’ परहित सरिस धर्म नहीं भाई ’ के सिद्धांत पर चलनेवाला देश.
‘ जिओ और जीने दो ’ के नारेवाला देश. जिसको अपनी चिंता है ,वह खुलकर दूसरों की चिंता कर रहा है. जनता की चिंता करनेवाले लाखों करोड़ों लोग हैं. जनता को अगर अपनी चिंता है जो वह बिल्कुल चिंता न करे.उसकी चिंता करनेवाले अनगिनत लोग लाइमलाइट में हैं इस देश में. योगी हैं ,साधु संन्यासी है ,नेता हैं ,अभिनेता हैं . मंत्री हैं ,अधिकारी हैं ,सेना है , पुलिस है , राजनैतिक दल हैं ,उद्योगपति हैं , आदि भी है और इत्यादि भी हैं. जनता के एक एक व्यक्ति की कई कई चीजों की चिंता कई कई लोग कर रहे हैं , साधु संन्यासी तो जनता के इस जीवन की चिंता कर ही रहे हैं ,आनेवाले अनेक जीवन की भी चिंता कर रहे हैं . इतना ही नहीं इस लोक के ऊपर जो परलोक है उसकी भी चिंता कर रहे है. योगी हैं जो खान पान , रहन-सहन ,चाल-चलन ,और स्वास्थ्य की चिंता कर रहे हैं. सिर्फ इतना ही नहीं जनता के साथ साथ देश के स्वास्थ्य , देशीय राजनीति , देश के विदेशों में स्थापित गुप्त बैंको की भी चिंता उन्हें बहुत ज्यादा है. उन्होंने संस्थागत बैंको के स्थान पर अनुयायी रूपी बैंकों की स्थापना की धार्मिक और आध्यात्मिक बैंकबाजी तो कब से चल रही है. हमारी सरकार इस तरह के धार्मिक बैंकों को आयकर में राहत प्रदान करती हैं. योगियों ,आध्यात्मिक एन जी ओ ,धार्मिक संगठनों ने इस तरह की बैंकिग में विशेषज्ञता पा्रप्त कर ली है. परिणामस्वरूप वे पूंजीपतियों की चिंता तो कर ही रहें हैं ,किसानों की चिंता कर रहे हैं. उत्पादन की चिंता उन्हें है तो उत्पादनों में मिलावट की भी चिंता उन्हें है. वे मिलावट के उत्पादन की चिंता भी कर रहे हैं ,जिसके बिना उनका अभियान अधूरा है. यानी केवल वे शुद्ध बाक़ी सब अशुद्ध. यह सब शुद्ध राष्ट्रीयता के नाम पर हो रहा है. हमारी राष्ट्रीयता विदशों में जा रही है. इसलिए इन्हें देश की जितनी चिंता है ,उससे कहीं ज्यादा विदेशों की चिंता है. इसी के चलते वे ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के सच्चे उद्गाता हो गए हैं. वे देश के विदेश स्थित मसीहा हैं. इसीलिए भारत में एक शिविर लगाते हैं तो विदेशों में पांच लगाते हैं. यह सारे शिविर शिविरार्थियों के पैसों से लगते हैं. जो पैसा आयकर से मुक्त होकर बाढ़ की शक्ल में आता है , वह कहां जाता है ? यह या तो वे जानें या वह भगवान ,जिसके मार्गदर्शन में वे काम करते हैं. भाई लोगों की तरह उनके उस भगवान को वे खुद नहीं जानते. विदेशांे में उनके ज्यादा रहने का गणितीय सत्य यह है कि भारत कितना भी वृहद्क्षैत्रीय हो , है तो एक ही. विदेशों की संख्या मित्र और शत्रु राष्ट्रों सहित सैंकड़ों से ऊपर है. चारों तरफ से भारत विदेशों से घिरा है.चने के दाने के बराबर एक विदेश लंका है तो मटर के दानों जैसे बर्मा ,नेपाल ,तिब्बत और भूटान बिल्कुल शरीर की चमड़ी की तरह भारत से चिपके हुए हैं. पाकिस्तान भी चिपका हुआ विदेश है. वह तो एक पेट ,एक दिल ,एक मुंह आदि के रूप में पैदा होनेवाली पराप्राकृतिक ,एब्नार्मल ,स्पेशल संतान की तरह अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है. पंजाब वहां तो यहां भी. बंगाल यहां तो वहां की तर्ज़ पर .
कुलमिलाकर , धार्मिक अखाड़े ,योगी और संन्यासी भारत की चिंता कर रहे हैं और विदेश की भी. भारत में पूर्वाभ्यसस करते हैं , असली कार्यक्षेत्र , असली रंगमंच तो उनका विदेश है. विदेश उनके गंण को विश्वव्यापी बनाता है. विदेश पलट को आज भी हमारे देश की गरीब जनता आश्चर्य से देखती है कि देखो विदेश घूम रहा है!यह जनता जो गरीब है, जिसके लिए दिल्ली ही नहीं अपने प्रदेश की राजधानी भी एक कपोलकल्पना है ,उस तक पहुंचने की बात तो दूर है. वह जनता उन लोगों पर भगवान का विशेष आशाष मानकर उन्हें सम्मान की दुष्टि से देखती है जो विदेशों को लक्ष्य बनाकर चलते हैं .उद्योगपति ,राजनीतिक ,साधु ,संन्यासी ,योगी ,भोगी सहित जनता उस रोगी को भी विशेष सम्मान से देखती है जेा विदेशों में जाकर इलाज करवाते हैं. क्योंकि उस बेचारा-जनता का इलाज तो देश कर ही नहीं सकता.
ऐसी जनता की चिंता विदेशों अक्सर दौरा करनेवालों को है. इसका अर्थ यह हुआ कि देश में रहकर देश की चिंता तो की ही नहीं जा सकती. देश की सेवा करनी हो तो विदेशों को अपना ठिकाना बनाना पड़ता है. देश का पैसा विदेशी बैंक में ही संरक्षित रह सकता है. ये जो योगी और संन्यासी ,आध्यात्मिक- उद्योगपति विदेशों से धन भारत में ला रहे हैं और अपने धर्मसंस्थान , योग उद्योग, आयुर्वेद कारखाने और आध्यात्मिक उद्योगों में लगा रहे हैं, चतुर पूंजीपति हैं.धर्म हमारे देश का वह सफल पूंजीवादी उद्योग है जिसमें काल्पनिक और मानसिक प्रडक्ट बेचे जाते है और भौतिक पार्थिव द्रव्य वसूल किया जाता है. गुमनाम लेखकों की अन्य व्यावहारिक बातों को बातों को मुद्रित कर उसे सदस्यता के नाम पर बेचकर धन उगाहा जा रहा है. गरीबों को ऐसे आध्यात्मिक संगठनों में कोई जगह नहीं मिलती .शांति और ईष्वर तक पहुंचना तो वहां भी निर्धनों के लिए असंभव है.
यही सच्ची चिंता है ,सच्ची देश सेवा है.राजनीति पर ,भ्रष्टाचार पर ,कदाचार पर ,व्यभिचार पर मानसिक- शाब्दिक हमला करते हुए अपने तथाकथित सात्विक नैतिक और सदाचारी उद्योग को भैतिक संसाधनों के वैभव के साथ खड़ा किया जा रहा है और इस लोक को भोगा जा रहा है. ये वही धार्मिक उद्योग हैं जो अपने जनसंपर्क कौशल के बल पर राजनैतिक पैठ बनाते हुए ,राजनैतिक महापुरुषों से सांठ-गांठ करते हुए ,भारतीय प्रजातंत्र के वोटबैंक के लिए छद्म रूप से प्रचार प्रसार भी करते हैं. इस प्रकार देश की चिंता करते करते धर्मपुरुष ,संन्यासी और योगी अचानक राजनीति में प्रवेश करने की इच्छा जाहिर करने लगते हैं. स्वाभिमान के नाम पर राष्ट्रीय राजनैतिक दल की महात्वाकांक्षा जागने लगती है. समझा जा सकता है कि ऐसा दल या यूं कहें कि ‘ भानुमति के पिटारे से निकला ऐसा राजनैतिकदल ’ , प्रजातांत्रिक होगा या व्यक्तिवादी ? जनतांत्रिक होगा या सामंतवादी ? गणतंत्रीय होगा या साम्राज्यवादी ? जनतंत्र के नाम पर खड़े होनेवाले इस ‘ विशुद्ध व्यापारवादी राजनैतिकदल ’ की चिंता निरीह जनता करे या न करे ?
निष्कर्षतः इसकी भी चिंता जनता न करे. धर्म में मूर्खता और आकाशीय-तत्त्व का सनातन महत्त्व भले ही हो ,राजनैतिक दल जैसे पार्थिव दल में इतने कांटे होते हैं कि धर्म के नाम पर फुलाए गए एक भी फुग्गे का यहां उड़ना संभव नहीं है. किसी भी कांटे की एक तुच्छ सी नोंक उनकी हवा निकाल देगी. करोड़ों अरबों का दान बटोरकर जो योग-संस्थान विश्वसनीय दवाएं गरीब जनता को सस्ते में उपलब्ध नहीं करा पाया और मुनाफे के तर्क प्रस्तुत करता रहा , वह राजनीति में आकर भी वही करेगा ,मुनाफे का सौदा. अब चिंता इस बात की है कि जो व्यक्ति योग के माध्यम से करोड़ों लोगों को मानसिक शारीरिक ऊर्जा प्रदान कर रहा था ,वह विकृत चेहरे मे परिवर्तित होता जा रहा है. 04-060409

1 comment:

  1. बहुत बढ़िया तरीके से बहुत गहराई से आपने पुरुषार्थ के ढ़ोंग को उजागर किया है। कितना ही मानवीयता का प्रदर्शन करें करने वाले अंततः सब राजनीति और सत्ता की गोद या चरण में जा गिरते हैं।
    डाॅ. रा. रामकुमार

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