अंधेरे से निकलकर
अलसाई भोर के माथे पर फैले
सिंदूर को पोंछते आता है सूरज
बिल्कुल चुपचाप-
हमारे आसपास।
पूर्वान्ह..मध्यान्ह...अपरान्ह..
समय के परिन्दे के तीन पर ,
तेरे ,मेरे ,उसके ..।
हम सबके किए न किए के
जीवित अभिलेख
रचते हैं इतिहास।
’’ हमारे समय में यह था ,वह था ,
तुम्हारे समय में क्या है ?’’
प्रश्नों की उंगलियां चटखाते उलाहने
कब तक सुनेगा समय...
हमारा समय ,
कब तक जुगालियों के दाने
डालेगा अतीत ?
वर्तमान की चोंच में !
कब तक भोगेंगे हम
अकर्मण्यता का संत्रास ?
व्यतीत के बड़बड़ाते खरखराते
समलय तान के बीच से
अब आने दो नयी तान
अब आए नया राग
अब गाए अपनी ही धुन में
समय... हमारा समय ,
हमारा समय यानी
एक नया आभास ...सप्रयास ।
-कुमार कौतुहल
Tuesday, May 19, 2009
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
kumarji bahut achhi rachna............badhai
ReplyDeleteWel described and well narrated work.Pl have my best wishes.
ReplyDeleteYours thankfully
Dr.Bhoopendra
बेहतर प्रयास..
ReplyDeleteअपने समय के साथ होना ही..एक नाया आभास..सप्रयास